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22 जून 2012

राएगाँ जाती नहीं कोई दुआ शब्बीर की

हज़रत इमाम हुसैन (अ.स.) की विलादत के मौके पर ज़हीर इलाहाबादी (शैज़ी रिज़वी ) ने 
नजफे अशरफ, इराक से अपना कलाम www.MyKarari.com के लिए भेजा है. 
हम तहे दिल से उनका शुक्रिया अदा करते हैं. 
ज़हीर इलाहाबादी नजफे अशरफ में हौज़े इल्मिया में दीनी तालीम हासिल कर रहे हैं.

सोचता  हूँ   किस  तरह  होगी  सना  शब्बीर  की
मदहा  की  कुव्वत  अता  कर  दे  खुदा  शब्बीर  की
ज़िन्दगी  बे  मानिओ  मतलब  गुज़र  जाती  मेरी
शुक्रिया  तेरा  के   तू ने  दी  अजा  शब्बीर  की
मालिके  खुल्दे  बरीं   हो  जाता  है  लम्हों  में  वो
गर  किसी  बन्दे  पे  हो  जाए  अता  शब्बीर  की 
नोके  नेजा  पे  तिलावत  कर  रहे  हैं  शाहे  दीं
और  जियारत  कर  रहा  है  हल  अता  शब्बीर  की
मिस्ले  राहिब  बे  समर  उम्मीद  को  बख्शे  समर
राएगाँ   जाती  नहीं  कोई  दुआ  शब्बीर  की
क्या  कोई  बच  पाया  है  कहरे  खुदा  से  आज  तक
कहरे  खालिक  की  तरह  से  है  विगा  शब्बीर  की
जिस  घडी  तलवार  के  कब्जे  में  था  दस्ते  हुसैन
देखता  था  खालिके  अकबर  अदा  शब्बीर  की
अश्क  आखों  में  छलक  पड़ते  थे  पैग़म्बर  के  भी
आँख  में  आंसू   अगर  एक  आ  गया  शब्बीर  की .
नामए  आमाल  मेरा  देखने  से  पहले  तुम
जा  के  पूछो  तो जरा  मर्ज़ी  है  क्या  शब्बीर  की
पूछ   बैठा  ख्वाब  में  जिब्रील  से  मैं  क्या  करूं 
कह  उठे  लिख  दो  ज़हीर  अब  कुछ  सना  शब्बीर  की

12 दिसंबर 2011

करारी के ओलामा के खिलाफ साज़िश का पर्दा फाश

करारी में चंद शरपसंद अनासिर, फासिक और बेदीन अफराद ने करारी के ओलामा को बदनाम करने की साजिश रची थी जिस का पर्दा फाश हो गया.
एक जय्यिद और बुज़ुर्ग आलिम दीन के नाम से मुहर्रम से पहले एक परचा छपवाया. इस परचे में महीनी यह थी के इसमें पहले करारी में निकलने वाले जुलूस की फेहरिस्त थी और आखिर में एक नोट लगी हुई थी.
यह नोट करारी के एक बुज़ुर्ग आलिम की तरफ मंसूब थी. इस आलिम के पीछे बहुत दिन से लोग ताक में लगे थे क्यूंकि यह मिम्बर पर अक्सर हक और खरी खरी बात करता था. मिम्बर से हक बात कहने में अपनी औलाद को भी नहीं बख्शा.

नीचे दर्ज अहेम नुक्तों ने इन शर पसंद अफराद की साज़िश को बेनकाब करदिया.

1 - इस आलिम के Rizvi खानदान से इतने अच्छे ताल्लुकात थे (9 मुहर्रम की रिज़वी कॉलेज की मजलिस इन्हीं से पढवाई जाती है) की अगर उन्हें इतनी बड़ी बात कहनी होती तो पहले वोह राबता करते और तस्दीक करते. इसी 9 मुहर्रम को वोह खुश अख्लाकी से कॉलेज के बंगले पर मिले.

2 - दूसरा यह इतना बुज़ुर्ग आलिम जो हव्ज़ाए इल्मिया से Retire हुआ हो और अपनी ज़िन्दगी दरसे अखलाक देने में गुजारी हो वोह कभी इतनी ओछी, पस्त और गिरी हुई बात नहीं कर सकता. इस आलिमे दीन को पता है किसी इलाके में रहने वाला अगर अपनी बस्ती के जुलूस या मजलिस के बारे में जानकारी नहीं रखता तो वोह कोई ऐब नहीं है. बहुत से अफराद ऐसे हैं जो शहरों में रहते हैं और  अपनी बस्ती की तफ्सीलात नहीं जानते, लेकिन अपने इलाके से जुड़े हुए हैं और अपनी बस्ती की तरक्की के लिए अस्पताल, स्कूल और कॉलेज तामीर करने के काम करते हैं जिस से लोग अपना निजी फ़ाएदा भी उठाते हैं और चंदा भी ले जाते हैं.

3 - सब से बड़ी दलील इस परचे के पीछे मुजरिमाना ज़िन्दगी गुज़ारने वालों की यह है के उन्हों ने ऐसे आलिमे दीन के नाम से मंसूब किया है जिसने अपनी दीनी तालीम लखनऊ या बनारस में नहीं हासिल की बल्कि नजफे अशरफ के बड़े बड़े अयातुल्लाह और मराजे किराम से दरस हासिल किया. और यह आलिमे दीन इतनी बात ज़रूर जानता है की अपनी बस्ती के मुहर्रम की मजलिस और जुलूस की तफ्सीलात न जान्ने वाला "शिय्यत से खारिज" नहीं हो सकता, क्यूंकि यह अक्ल और शरीअत के मनाफ़ी है.

4 - यह भी जानकार आप लोगों को हैरत होगी की इस handbill को जिस आलिमे दीन से मंसूब किया उसके नाम के साथ उसकी दस्तखत (signature ) भी नहीं है. बिला दस्तखत कोई भी परचा किसी रद्दी की जीनत ही बन सकता है.

शरपसंदों की तरफ से करारी तकसीम किया गया परचा.