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21 अप्रैल 2020

वह आदमी पक्के इरादों और मुकम्मल यक़ीन वाला था

साम्राज्यवाद और प्रतिगामी की क़ैंची से हमेशा ही ऊंची उड़ान भरने वालों के परों को कतरा जाता रहा रहा है।
यह और बात है कि ऊंची उड़ान भरने वाले बाज़ों की उड़ान परों के कतरे जाने के बावजूद इतनी ऊंची होती है कि उस तक पहुंचना मुमकिन नहीं होता।
आप इतिहास उठा कर देख लीजिए साम्राज्यवाद और प्रतिगामी विचारधारा रखने वाले हमेशा आज़ाद फ़िक्र रखने वालों के ख़िलाफ़ मैदान में डटे दिखाई देंगे उनके साथ कुछ ऐसे निजी फ़ायदे के पीछे भागने वाले भी होंगे जिनकी दाल रोटी कभी पर्दे की आड़ में तो कभी बिना पर्दे के इसी पर डिपेंड है कि वह हर वैल्यू का सौदा करें, हर तहरीक का गला घोंटने के लिए तैयार रहें, हर तरह की जागरूकता को अपने लिए मौत का पैग़ाम समझें।
यह निजी फ़ायदे के भूखे लोग हमेशा प्रतिगामी विचारधारा रखने वाले लोगों के साथ साम्राज्यवाद के देव की आंखों का तारा रहे हैं उनके साथ एक और वर्ग खड़ा दिखाई देता है जो मसलेहत पसंदों का है, इन मसलेहत की चादर लपेटे रहने वालों ने साम्राज्यवाद और प्रतिगामी फ़िक्र वालों के साथ मिलकर वक़्त के ग़ुलामों का हमेशा बचाव किया है।
और इन्हीं के बचाव की वजह से दीन में बिदअत का चलन फैलना शुरू हुआ और दीन ही के नाम पर दीन का चेहरा बिगाड़ा जाता रहा, जबकि दीन में ग़ैर दीनी बातों को शामिल करने का फ़ायदा कहीं न कहीं इन्हीं प्रतिगामी सोंच वालों और साम्राज्यवाद के वकीलों, निजी स्वार्थ वालों और दल बदलुओं को मिलता रहा जो दीन के नाम पर लोगों को बेवक़ूफ़ बना कर अपना उल्लू सीधा करते रहे, जबकि मसलेहत की चादर ओढ़े रहने वाले इन लोगों के लिए बचाव के तरीक़े निकालते रहे,
प्रतिगामी सोंच हो या साम्राज्यवाद के चरणों में आस्था के फूल निछावर करने वाले पत्थरों के पुतले और दीनी कवच में लिपटे हुए इल्हाद और बे दीनी रस्मों के बुत इन सब पर उपमहाद्वीप (भारत और पाकिस्तान) में कड़ा प्रहार दीनदारी की तहरीक और मिशन की शक्ल में हुआ जो एक इंक़ेलाबी लहर की तरह दिल और दिमाग़ को झिंझो‍ड़ते हुए आगे बढ़ती गई, और उस मंज़िल तक पहुंची कि बड़े बड़े बुतों के टूटने की आवाज़ें क़ौम ने अपने कानों से सुनी।
यह इंक़ेलाब कोई कम न था कि "बच्चे अमल में बाप से आगे निकल गए"।
बच्चे अमल में बाप से आगे निकल गए अब एक नारा नहीं बल्कि ऐसी हक़ीक़त है जिसे हर ज़िंदा ज़मीर अपने इलाक़े, मोहल्ले और गांव देहात से लेकर शहरों तक महसूस कर सकता है।
हाल ही में तंज़ीमुल मकातिब की तरफ़ से होनी वाली दीनी तालीमी कांफ्रेंस में जिस तरह एक बच्ची ने क़ुरआन ज़ुबानी याद कर के सुनाया उसे देख कर हर एहसास रखने वाले की आंख छलक उठी और सीना गर्व से चौड़ा हो गया कि ख़तीबे आज़म जाते जाते हमें उस दीनदारी की डगर पर मोड़ गए जहां केवल हज़रत ज़हरा स.अ. की कनीज़ होने के दावे नहीं किए जाते बल्कि उनकी सीरत पर अमल कर के ख़तीबे आज़म की डगर पर चलते हुए हमारे बच्चे उसी रविश और तरीक़े को चुन रहे हैं जो किसी ज़माने में जनाब फ़िज़्ज़ा का हुआ करता था, उनकी ज़िंदगी में क़ुरआन है उनकी बातों में क़ुरआन है, जो लोग कहते हैं कि दीनदारी की तहरीक और मिशन में अब क्या है जो कुछ था वह पहले था, न अब पहले जैसे लोग रहे और न पहले जैसा जज़्बा तो वह लोग भूल जाते हैं पैग़म्बर स.अ. के दौर जैसे लोग क्या अब हैं? या वैसा जज़्बा किसी में पाया जाता है जो इमाम अली अ.स. में था या जो अबूज़र और सलमान में था?
जज़्बों की परख का यूं तो हमारे पास कोई पैमाना नहीं लेकिन इतना यक़ीन से कहा जा सकता है कि आज भी अबूज़र और सलमान के क़दम की ख़ाक को अपनी आंखों का सुरमा बनाने वाली हस्तियां मौजूद हैं, कहीं आयतुल्लाह ख़ामेनई की शक्ल में तो कहीं आयतुल्लाह सीस्तानी की शक्ल में तो कहीं सैयद हसन नसरुल्लाह की शक्ल में, और कुछ गुमनाम सिपाहियों की सूरत में जो मासूम की मौजूदगी से लेकर ग़ैबत तक बातिल के सामने वैसे ही डटे हैं जैसे इनका नबी उनके आमाल को देख रहा हो।
पैग़म्बर स.अ. की 23 साल की सुधार करने वाली ज़िंदगी में अगर वह रंग पैदा हो सकता है चौदह सौ साल में उठने वाले हज़ारों तूफ़ान उसके रंग को फीका न कर सकें तो इस बात में भी कोई शक नहीं कि उन्हीं की मेहनत और सबक़ को लोगों तक पहुंचाने वाले ख़तीबे आज़म के ख़ुलूस का रंग भी इतना हल्का नहीं जो कुछ आंधियों के चलने या कुछ अरकान के गुज़र जाने से फीका पड़ जाए, यही वजह है कि दीनदारी की तहरीक और मिशन ने जिस तरह कल प्रतिगामी और साम्राज्यवाद, ख़ानदानी अना (अकड़) को अल्लामा ग़ुलाम असकरी र.ह. के मुताबिक़ "शाही" को ज़लील किया इसी तरह आज भी इस तहरीक में वह दम है कि आज के दौर के वैचारिक बुतों को तौहीद के वार से जड़ से उखाड़ सकती है लेकिन उसके लिए इब्राहीमी नज़र की ज़रूरत है जिसका अपने अंदर पैदा करना मुश्किल ज़रूर है लेकिन अगर ख़्वाहिशात पर कंट्रोल हो तो ना मुमकिन भी नहीं है।
इब्राहीमी नज़र बड़ी मुश्किल से पैदा होती है, "हवस छुप छुप कर सीनों में बना लेती हैं तस्वीरें"
अल्लाह! कैसी इब्राहीमी नज़र थी इस सदी की अज़ीम हस्ती की, जो न केवल समाज में अपने हाथों तराशे गए बुतों को तोड़ रहा था बल्कि ऐसे बुतों के तोड़ने वालों की तरबियत की फ़िक्र भी उसे थी जो हमेशा इब्राहीमी इरादों और हौसलों के साथ "तौहीद" को बचाने के लिए हर नमरुद के सामने कामयाबी के ज़ामिन बन जाएं।
यही वजह है कि आज भी साम्राज्यवाद को मदरसों से ख़तरा महसूस हो रहा है और मदरसों को लेकर उनकी साज़िश अब भी जारी है, मदरसों में तालीम हासिल करने वाले चाहे जिस जगह जिस रंग या जिस नस्ल के भी क्यों न हों आज इसीलिए साम्राज्यवादी ताक़तों के निशाने पर हैं क्योंकि उन्हें केवल तालीम नहीं दी जाती बल्कि दिल में छिपे अहंकारी बुतों के तोड़ने का हुनर भी सिखाया जाता है जो ख़ुद इसी तालीम का हिस्सा है।
इतिहास गवाह है कि जब भी कोई बुतों को तोड़ने वाला हिम्मत और हौसले के साथ सामने आया है, बुतों की पनाह में ख़ुद को मनवाने वालों ने उसे आग में फेंकने की कोशिश की है, यह और बात है कि अल्लाह की सुन्नत यह है कि अगर तुम उसकी राह में बुतों को तोड़ोगे तो हज़ारों टन जलती हुई लकड़ियों की आग को भी वह ठंडी कर देगा।
शायद यही वजह थी कि घिसी पिटी रस्मों के बुतों को तोड़ने के लिए जब यह इब्राहीम का बेटा आगे बढ़ा तो हर तरफ़ से नुक्ता चीनी का ऐसा बाज़ार गर्म हो गया जो दहकती आग से कम नहीं था लेकिन अल्लाह पर ईमान ने उसे गुलज़ार बना दिया और आरोप, आलोचना और नुक्ता चीनी के बाज़ार से ख़तीबे आज़म मुस्कुराते हुए गुज़र गए, और न केवल उनकी हिम्मत और हौसले में कमी नहीं आई बल्कि इरादे में मज़बूती आती चली गई और हर आगे बढ़ने वाला क़दम पहले से और मज़बूती के साथ बढ़ गया।
"शिकस्त खा न सका वक़्त के ख़ुदाओं से
वह आदमी बड़े अज़्म व  यक़ीन वाला था"
अपने फ़ौलादी इरादों के बल पर ही ख़तीबे आज़म ने आले मोहम्मद के उलूम को फैलाने का बेड़ा अपने सर उठाया, अल्लाह पर भरोसा किया और काम शुरू कर दिया जिसका काम था उसकी मदद की, नतीजा यह है कि आज पहले से ज़्यादा दीनी जागरूकता पाई जाती है, दोस्त तो दोस्त दुश्मन भी उनके काम के फ़ायदे का इंकार नहीं कर सके।
ख़तीबे आज़म की इससे बड़ी कामयाबी क्या होगी कि जो तहरीक और मिशन उन्होंने छेड़ा था आज हर बेदार ज़मीर उसका हिस्सा बना हुआ है।
दीनी तालीम की बुनियाद पर मुर्दा ज़मीर बेदार हो रहे हैं और आज न केवल मदरसों में रौनक़ है बल्कि उनकी तादाद रोज़ाना बढ़ रही है, मज़हबी लेटरेचर का इस्तेक़बाल भी पहले से ज़्यादा हो रहा है।
कल दीन और क़ौम की जो ख़िदमत ख़तीबे आज़म और उनके साथी अंजाम दे रहे थे आज हर सूझबूझ रखने वाला वही अंजाम दे रहा है।
क़ौम और मिल्लत की ख़िदमत आज हर दीन की सूझबूझ रखने वाले का ख़ास मिशन है, दीनदारी की तहरीक से पहले और बाद की हालत इस बात की दलील है कि यह तहरीक लोगों के दिलों में घर बना चुकी है, जिन मदरसों की तादाद इस तहरीक से पहले उंगलियों पर गिनी जा सकती थी आज माशा अल्लाह उनकी तादाद सैकड़ों में पहुंच चुकी है।
इसका मतलब न केवल यह तहरीक ज़िंदा है बल्कि तहरीक पूरी क़ौम को ज़िंदा रखे हुए हैं, आप कोई मिशन, कोई नेक काम, कोई समाजी और क़ौमी तहरीक या इदारा नहीं दिखा सकते जहां ख़तीबे आज़म की तहरीक से जुड़े लोग डाइरेक्ट या अनडाइरेक्ट तौर पर मौजूद न हों, यह तहरीक के ज़िंदा होने की दलील नहीं तो और क्या है?
अगर हालात के पेशे नज़र अलग अलग जगहों पर शमा रौशन हो जाएं और हर शमा अपना काम कर रही हो तब भी उस असली शमा और चिराग़ को भुलाया नहीं जा सकता है जिसकी रौशनी से शमा जल कर अपने चारों तरफ़ उजाला कर रही है।
ख़तीबे आज़म की याद को ताज़ा करना उनकी फ़िक्र पर नज़र डालना उन्हें पढ़ना केवल उनके लिए अक़ीदत का इज़हार नहीं है बल्कि हमारे लिए सोंचने का मक़ाम है कि हम उस मज़बूत इरादे और बुलंद हौसले वाले अज़ीम मर्द के विचारों की रौशनी में यह देखें कि हम कहां खड़े हैं? और हमें कहां होना चाहिए?
आज भी हम अपने मोहसिन और मोअल्लिम की तरफ़ देखेंगे तो सारी मुश्किलों के बाद यही आवाज़ आएगी कि छोड़ो मुश्किलों को, मुश्किलें तो होती ही इसलिए हैं कि तुम्हारे जौहर को निखारा जा सके।
आज भी अना, घमंड और तकब्बुर के नक़्क़ार ख़ानों की आवाज़ों को दबाते हुए लिल्लाहियत में डूबी हुई एक दर्द भरी आवाज़ सुनाई देगी जो हमें आगे बढ़ने का हौसला दे रही है।
उठ कि ख़ुर्शीद का समाने सफ़र ताज़ा करें
नफ़से सूख़्ता ए शामो सहर ताज़ा करें

सैयद नजीबुल हसन ज़ैदी

22 मार्च 2011

मरहूम मौलाना हैदर महदी साहब का चेहलुम


"तनजीमुल मकातिब के इख्तेलाफात का पहला शिकार?"  हुसैन भाई अपनी डाएरी  में शाएद यही दर्ज कर रहे हैं.
मरहूम मौलाना हैदर महदी साहब  के चेहलुम पर ली गई मज़ीद तस्वीरों को देखने के लिए click करें 

22 जनवरी 2009

Majlis-e-Chehlum


Majlis-e-Chehlum of my mother-in-law, marhuma Sayyeda Ishtiyaq Fatema d/o Sayed Alamdar Husain, the wife of Maulana Sayed Mohammad Ali Asif Zaidi, the vice-president of Tanzeemul Makatib and mother of Maulana Kumayl Asghar Zaidi and Maulana Manzar Sadiq Zaidi is on Sunday, 25th January 2009 at Ghazipur, via Shamli, Muzaffar Nagar UP.
For further detail call Yaqub Akhtar (Mannan) on 9927069986.

16 दिसंबर 2008

A Request for Namaaz-e-Wahshat

My mother-in-law, the wife of Maulana Sayed Mohammad Ali Asif Zaidi, the vice-president of Tanzeemul Makatib passed away at 1.20 am last night in Meeruth City, UP. She was critically ill for a few days. The burial will take place at village Ghazipur, District Muzaffar Nagar, UP, after the namaaz of Zohr today.
You are requested to perform namaaz-e-Wahshat after the maghrib namaaz. The deceased name is marhuma Sayyeda Ishtiyaq Fatema d/o Sayed Alamdar Husain.
For condolence, contact: 09927069986 or 09719633559
How to perform namaaz-e-Wahshat?
It is Mustahab that on the day of the burial on this night between Maghrib and Isha one should recite two rak'ats prayer. This is known as Namaz-e-Wahshat because for the dead person the most horrifying and difficult is the first night. In the first rak'at after Surah Hamd recite Ayatul Kursi and in the second rak'at after Surah Hamd recite Surah Qadr 10 times. After finishing the prayers mention the name of the dead person and gift her the Sawab of this namaaz.
Fazeelat of Namaz-e-Wahshat:
Shaykh Thiqatul Islam Noori has narrated directly from Fath Ali Sultanabadi that he says he had the habit that whenever he heard of the death of a family member or a friend he would pray two rak'ats prayer of the night of burial and gift the Sawab. "No one knew about this practice of mine. One day I met a friend. He said: Last night I had a dream in which I saw a person who had died that day. I asked him about his well being and inquired about the conditions after death. He said that after my death I was in a terrible difficulty because my deeds were very bad. Till the time this person recited two rak'at prayer. And he mentioned your name. This two rak'at Namaaz saved me from the punishment. May Allah have mercy on the parents of this person who did this favour to me. Marhum Haajj Mulla said: At this time the person asked me what that prayer was? I explained to him the method of this prayer and those things that are beneficial to the dead ones. They are as follows:
1) In order to be safe from the Wahshat-e-Qabr (terror of the grave) one should perform the ruku properly. Thus it is related from Imam Baqir (a.s.) that one who performs the ruku properly does not have terror in the grave.
2) Recite "Laa ilaaha illallaahul Malikul haqqul Mubeen" a hundred times daily. One who recites this is safe from poverty and terror of the grave and affluence pulls him towards itself and the doors of Paradise open up for him.
3) Recite Surah Yasin before going to bed.
4) Recite Namaz-e-Lailatul Raghaib which is mentioned in the A'maal of Rajab on the eve of the first Friday of the month of Rajab. It is narrated from Imam Sadiq (a.s.) that whenever there is narrowness and severity on the dead body the Almighty widens his/her grave and removes the narrowness and says that this widening is because you had recited Namaz-e-Wahshat for such and such believer.