26 अप्रैल 2020

अबू लहेब का हश्र


 रवायात में आया है के बद्र की जंग में क़ुरैश के मुश्रिकीन को  बुरी हार के हुई।  
अबू लहब इस जंग में शरीक नहीं था।  
जंग में हारे अबू सुफियान से रिपोर्ट मांगी।  
अबू सुफियान ने क़ुरैश की हार बयान की और कहा के इस जंग में आसमान और ज़मीन के दरमियान  ऐसे सवार देखे जो मोहम्मद की मदद के लिए आये थे। 
इस मौक़े पर अब्बास के एक ग़ुलाम "अबू राफ़े" ने कहा; मैं वहां बैठा हुआ था उसने अपने हाथ उठाते  हुए कहा: वह आसमानी फ़रिश्ते थे। 
इस पर अबू लहब भड़क उठा और उसने एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा और ज़मीन पर पटक दिया और अपनी भड़ास निकालने के लिए अबू राफे को पीटे जा रहा था। 
वहाँ अब्बास की बीवी "उम्मुल फ़ज़्ल" भी मौजूद थी। उसने एक छड़ी उठाई और अबू लहब के सर पर दे मारी और कहा : क्या तूने इस कमज़ोर आदमी को अकेला समझा है?
अबू लहब का सर फट गया और उस से खून बहने लगा। 
सात दिन के बाद अस के बदन में बदबू पैदा हो गई , उसके मुंह पर ताऊन के दाने निकल आये और वह उसी बीमारी से वासिले जहन्नम हो गया। 
उसके बदन से इतनी बदबू आ रही थी के लोग उसके नज़दीक जाने की जुरअत नहीं करते थे। 
उसे मक्का से बाहर ले जाया गया और दूर से उस पर पानी डाला और उस के बाद उसपर पथ्थर फेंके , यहाँ तक के उस का नजिस बदन पथ्थर और मिटटी के नीचे छुप गया। 

Khud pasandi | Danishwaro Ke liye Shaitan

23 अप्रैल 2020

रोज़े के दौरान हमारे जिस्म का रद्दे अमल

रोज़े के दौरान हमारे जिस्म का रद्दे अमल (Reaction) क्या होता है?
इस बारे में कुछ दिलचस्प मालूमात:


पहले दो रोज़े:

पहले ही दिन ब्लड शुगर लेवल गिरता है यानी ख़ून से चीनी के ख़तरनाक असरात का दर्जा कम हो जाता है।

दिल की धड़कन सुस्त हो जाती है और ख़ून का दबाव कम हो जाता है। नसें जमाशुदा ग्लाइकोजन को आज़ाद कर देती हैं। जिसकी वजह से जिस्मानी कमज़ोरी का एहसास उजागर होने लगता है। ज़हरीले माद्दों की सफ़ाई के पहले मरहले के नतीज़े में सरदर्द, सर का चकराना, मुंह का बदबूदार होना और ज़बान पर मवाद जमा होता है।

तीसरे से सातवें रोज़े तक:

जिस्म की चर्बी टूट फूट का शिकार होती है और पहले मरहले में ग्लूकोज में बदल जाती है। कुछ लोगों में चमड़ी मुलायम और चिकना हो जाती है। जिस्म भूख का आदी होना शुरु हो जाता है और इस तरह साल भर मसरूफ़ रहने वाला हाज़मा सिस्टम छुट्टी मनाता है।

ख़ून के सफ़ेद जरासीम (white blood cells) और इम्युनिटी (रोग प्रतिकार शक्ति) में बढ़ोतरी शुरू हो जाती है, हो सकता है रोज़ेदार के फेफड़ों में मामूली तकलीफ़ हो इसलिए कि ज़हरीले माद्दों की सफ़ाई का काम शुरू हो चुका है। आंतों और कोलोन की मरम्मत का काम शुरू हो जाता है। आंतों की दीवारों पर जमा मवाद ढीला होना शुरू हो जाता है।

आठवें से पंद्रहवें रोज़े तक:

आप पहले से चुस्त महसूस करते हैं। दिमाग़ी तौर पर भी चुस्त और हल्का महसूस करते हैं, हो सकता है कोई पुरानी चोट या ज़ख़्म महसूस होना शुरू हो जाए। इसलिए कि आपका जिस्म अपने बचाव के लिए पहले से ज़ियादा एक्टिव और मज़बूत हो चुका होता है। जिस्म अपने मुर्दा सेल्स को खाना शुरू कर देता है। जिनको आमतौर से केमोथेरेपी से मारने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से सेल्स में पुरानी बीमारियों और दर्द का एहसास बढ़ जाता है। नाड़ियों और टांगों में तनाव इसी अमल का क़ुदरती नतीजा होता है जो इम्युनिटी के जारी अमल की निशानी है।

रोज़ाना नमक के ग़रारे नसों की अकड़न का बेहतरीन इलाज है।

सोलहवें से तीसवें रोज़े तक:

जिस्म पूरी तरह भूक और प्यास को बर्दाश्त का आदी हो चुका होता है। आप अपने आप को चुस्त, चाक व चौबंद महसूस करते हैं।

इन दिनों आप की ज़बान बिल्कुल साफ़ और सुर्ख़ हो जाती है। सांस में भी ताज़गी आ जाती है। जिस्म के सारे ज़हरीले माद्दों का ख़ात्मा हो चुका होता है, हाज़में के सिस्टम की मरम्मत हो चुकी होती है। जिस्म से फ़ालतू चर्बी और ख़राब माद्दे निकल चुके होते हैं। बदन अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने फ़राएज़ अदा करना शुरू कर देता है।

बीस रोज़ों के बाद दिमाग़ और याददाश्त तेज़ हो जाते हैं। तवज्जो और सोच को मरकूज़ करने की सलाहियत बढ़ जाती है। बेशक बदन और रूह तीसरे अशरे की बरकात को भरपूर अंदाज़ से अदा करने के क़ाबिल हो जाते हैं। (शब ए क़द्र भी बीसवें रोज़े के बाद है)

यह तो दुनिया का फ़ायदा रहा जिसे बेशक हमारे ख़ालिक़ अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमारी ही भलाई के लिए हम पर वाजिब किया। मगर देखिए उसका अंदाज़े करीमाना कि उसके एहकाम मानने से दुनिया के साथ साथ हमारी आख़िरत भी संवारने का बेहतरीन बंदोबस्त कर दिया।

21 अप्रैल 2020

कोरोना में सबसे बड़ा खतरा


सबसे बड़ा खतरा नाई की दुकान से  ही  है।
 यह खतरा लम्बे समय तक बरकरार रहेगा।
 नाई एक तौलीये से कम से कम 4 से 5 लोगों की नाक रगड़ता है,
अमेरिका के स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख जे. एन्थोनी ने बताया है कि 
अमेरिका में 50 प्रतिशत मौतें ऐसे ही हुई है जो सैलून होकर आये थे।
हम संक्रमित मरीज के सम्पर्क में आये तो टिकट कटना निश्चित है।
जब तक कोरोना एकदम से खत्म नहीं हो जाता हम सैलून जाकर सेविंग कराने बाल कटवाने की सोच भी नहीं सकते।
 नाई अनेक लोगों के सम्पर्क में रहेगा,
 नाई का तोलिया, नाई का उस्तरा नाई का ब्रश, कुर्सी  आदि काफी लोग इस्तेमाल करते है 
स्थति सामान्य होने के बाद भी खतरा बरकरार रहेगा।
सावधान रहें।

वह आदमी पक्के इरादों और मुकम्मल यक़ीन वाला था

साम्राज्यवाद और प्रतिगामी की क़ैंची से हमेशा ही ऊंची उड़ान भरने वालों के परों को कतरा जाता रहा रहा है।
यह और बात है कि ऊंची उड़ान भरने वाले बाज़ों की उड़ान परों के कतरे जाने के बावजूद इतनी ऊंची होती है कि उस तक पहुंचना मुमकिन नहीं होता।
आप इतिहास उठा कर देख लीजिए साम्राज्यवाद और प्रतिगामी विचारधारा रखने वाले हमेशा आज़ाद फ़िक्र रखने वालों के ख़िलाफ़ मैदान में डटे दिखाई देंगे उनके साथ कुछ ऐसे निजी फ़ायदे के पीछे भागने वाले भी होंगे जिनकी दाल रोटी कभी पर्दे की आड़ में तो कभी बिना पर्दे के इसी पर डिपेंड है कि वह हर वैल्यू का सौदा करें, हर तहरीक का गला घोंटने के लिए तैयार रहें, हर तरह की जागरूकता को अपने लिए मौत का पैग़ाम समझें।
यह निजी फ़ायदे के भूखे लोग हमेशा प्रतिगामी विचारधारा रखने वाले लोगों के साथ साम्राज्यवाद के देव की आंखों का तारा रहे हैं उनके साथ एक और वर्ग खड़ा दिखाई देता है जो मसलेहत पसंदों का है, इन मसलेहत की चादर लपेटे रहने वालों ने साम्राज्यवाद और प्रतिगामी फ़िक्र वालों के साथ मिलकर वक़्त के ग़ुलामों का हमेशा बचाव किया है।
और इन्हीं के बचाव की वजह से दीन में बिदअत का चलन फैलना शुरू हुआ और दीन ही के नाम पर दीन का चेहरा बिगाड़ा जाता रहा, जबकि दीन में ग़ैर दीनी बातों को शामिल करने का फ़ायदा कहीं न कहीं इन्हीं प्रतिगामी सोंच वालों और साम्राज्यवाद के वकीलों, निजी स्वार्थ वालों और दल बदलुओं को मिलता रहा जो दीन के नाम पर लोगों को बेवक़ूफ़ बना कर अपना उल्लू सीधा करते रहे, जबकि मसलेहत की चादर ओढ़े रहने वाले इन लोगों के लिए बचाव के तरीक़े निकालते रहे,
प्रतिगामी सोंच हो या साम्राज्यवाद के चरणों में आस्था के फूल निछावर करने वाले पत्थरों के पुतले और दीनी कवच में लिपटे हुए इल्हाद और बे दीनी रस्मों के बुत इन सब पर उपमहाद्वीप (भारत और पाकिस्तान) में कड़ा प्रहार दीनदारी की तहरीक और मिशन की शक्ल में हुआ जो एक इंक़ेलाबी लहर की तरह दिल और दिमाग़ को झिंझो‍ड़ते हुए आगे बढ़ती गई, और उस मंज़िल तक पहुंची कि बड़े बड़े बुतों के टूटने की आवाज़ें क़ौम ने अपने कानों से सुनी।
यह इंक़ेलाब कोई कम न था कि "बच्चे अमल में बाप से आगे निकल गए"।
बच्चे अमल में बाप से आगे निकल गए अब एक नारा नहीं बल्कि ऐसी हक़ीक़त है जिसे हर ज़िंदा ज़मीर अपने इलाक़े, मोहल्ले और गांव देहात से लेकर शहरों तक महसूस कर सकता है।
हाल ही में तंज़ीमुल मकातिब की तरफ़ से होनी वाली दीनी तालीमी कांफ्रेंस में जिस तरह एक बच्ची ने क़ुरआन ज़ुबानी याद कर के सुनाया उसे देख कर हर एहसास रखने वाले की आंख छलक उठी और सीना गर्व से चौड़ा हो गया कि ख़तीबे आज़म जाते जाते हमें उस दीनदारी की डगर पर मोड़ गए जहां केवल हज़रत ज़हरा स.अ. की कनीज़ होने के दावे नहीं किए जाते बल्कि उनकी सीरत पर अमल कर के ख़तीबे आज़म की डगर पर चलते हुए हमारे बच्चे उसी रविश और तरीक़े को चुन रहे हैं जो किसी ज़माने में जनाब फ़िज़्ज़ा का हुआ करता था, उनकी ज़िंदगी में क़ुरआन है उनकी बातों में क़ुरआन है, जो लोग कहते हैं कि दीनदारी की तहरीक और मिशन में अब क्या है जो कुछ था वह पहले था, न अब पहले जैसे लोग रहे और न पहले जैसा जज़्बा तो वह लोग भूल जाते हैं पैग़म्बर स.अ. के दौर जैसे लोग क्या अब हैं? या वैसा जज़्बा किसी में पाया जाता है जो इमाम अली अ.स. में था या जो अबूज़र और सलमान में था?
जज़्बों की परख का यूं तो हमारे पास कोई पैमाना नहीं लेकिन इतना यक़ीन से कहा जा सकता है कि आज भी अबूज़र और सलमान के क़दम की ख़ाक को अपनी आंखों का सुरमा बनाने वाली हस्तियां मौजूद हैं, कहीं आयतुल्लाह ख़ामेनई की शक्ल में तो कहीं आयतुल्लाह सीस्तानी की शक्ल में तो कहीं सैयद हसन नसरुल्लाह की शक्ल में, और कुछ गुमनाम सिपाहियों की सूरत में जो मासूम की मौजूदगी से लेकर ग़ैबत तक बातिल के सामने वैसे ही डटे हैं जैसे इनका नबी उनके आमाल को देख रहा हो।
पैग़म्बर स.अ. की 23 साल की सुधार करने वाली ज़िंदगी में अगर वह रंग पैदा हो सकता है चौदह सौ साल में उठने वाले हज़ारों तूफ़ान उसके रंग को फीका न कर सकें तो इस बात में भी कोई शक नहीं कि उन्हीं की मेहनत और सबक़ को लोगों तक पहुंचाने वाले ख़तीबे आज़म के ख़ुलूस का रंग भी इतना हल्का नहीं जो कुछ आंधियों के चलने या कुछ अरकान के गुज़र जाने से फीका पड़ जाए, यही वजह है कि दीनदारी की तहरीक और मिशन ने जिस तरह कल प्रतिगामी और साम्राज्यवाद, ख़ानदानी अना (अकड़) को अल्लामा ग़ुलाम असकरी र.ह. के मुताबिक़ "शाही" को ज़लील किया इसी तरह आज भी इस तहरीक में वह दम है कि आज के दौर के वैचारिक बुतों को तौहीद के वार से जड़ से उखाड़ सकती है लेकिन उसके लिए इब्राहीमी नज़र की ज़रूरत है जिसका अपने अंदर पैदा करना मुश्किल ज़रूर है लेकिन अगर ख़्वाहिशात पर कंट्रोल हो तो ना मुमकिन भी नहीं है।
इब्राहीमी नज़र बड़ी मुश्किल से पैदा होती है, "हवस छुप छुप कर सीनों में बना लेती हैं तस्वीरें"
अल्लाह! कैसी इब्राहीमी नज़र थी इस सदी की अज़ीम हस्ती की, जो न केवल समाज में अपने हाथों तराशे गए बुतों को तोड़ रहा था बल्कि ऐसे बुतों के तोड़ने वालों की तरबियत की फ़िक्र भी उसे थी जो हमेशा इब्राहीमी इरादों और हौसलों के साथ "तौहीद" को बचाने के लिए हर नमरुद के सामने कामयाबी के ज़ामिन बन जाएं।
यही वजह है कि आज भी साम्राज्यवाद को मदरसों से ख़तरा महसूस हो रहा है और मदरसों को लेकर उनकी साज़िश अब भी जारी है, मदरसों में तालीम हासिल करने वाले चाहे जिस जगह जिस रंग या जिस नस्ल के भी क्यों न हों आज इसीलिए साम्राज्यवादी ताक़तों के निशाने पर हैं क्योंकि उन्हें केवल तालीम नहीं दी जाती बल्कि दिल में छिपे अहंकारी बुतों के तोड़ने का हुनर भी सिखाया जाता है जो ख़ुद इसी तालीम का हिस्सा है।
इतिहास गवाह है कि जब भी कोई बुतों को तोड़ने वाला हिम्मत और हौसले के साथ सामने आया है, बुतों की पनाह में ख़ुद को मनवाने वालों ने उसे आग में फेंकने की कोशिश की है, यह और बात है कि अल्लाह की सुन्नत यह है कि अगर तुम उसकी राह में बुतों को तोड़ोगे तो हज़ारों टन जलती हुई लकड़ियों की आग को भी वह ठंडी कर देगा।
शायद यही वजह थी कि घिसी पिटी रस्मों के बुतों को तोड़ने के लिए जब यह इब्राहीम का बेटा आगे बढ़ा तो हर तरफ़ से नुक्ता चीनी का ऐसा बाज़ार गर्म हो गया जो दहकती आग से कम नहीं था लेकिन अल्लाह पर ईमान ने उसे गुलज़ार बना दिया और आरोप, आलोचना और नुक्ता चीनी के बाज़ार से ख़तीबे आज़म मुस्कुराते हुए गुज़र गए, और न केवल उनकी हिम्मत और हौसले में कमी नहीं आई बल्कि इरादे में मज़बूती आती चली गई और हर आगे बढ़ने वाला क़दम पहले से और मज़बूती के साथ बढ़ गया।
"शिकस्त खा न सका वक़्त के ख़ुदाओं से
वह आदमी बड़े अज़्म व  यक़ीन वाला था"
अपने फ़ौलादी इरादों के बल पर ही ख़तीबे आज़म ने आले मोहम्मद के उलूम को फैलाने का बेड़ा अपने सर उठाया, अल्लाह पर भरोसा किया और काम शुरू कर दिया जिसका काम था उसकी मदद की, नतीजा यह है कि आज पहले से ज़्यादा दीनी जागरूकता पाई जाती है, दोस्त तो दोस्त दुश्मन भी उनके काम के फ़ायदे का इंकार नहीं कर सके।
ख़तीबे आज़म की इससे बड़ी कामयाबी क्या होगी कि जो तहरीक और मिशन उन्होंने छेड़ा था आज हर बेदार ज़मीर उसका हिस्सा बना हुआ है।
दीनी तालीम की बुनियाद पर मुर्दा ज़मीर बेदार हो रहे हैं और आज न केवल मदरसों में रौनक़ है बल्कि उनकी तादाद रोज़ाना बढ़ रही है, मज़हबी लेटरेचर का इस्तेक़बाल भी पहले से ज़्यादा हो रहा है।
कल दीन और क़ौम की जो ख़िदमत ख़तीबे आज़म और उनके साथी अंजाम दे रहे थे आज हर सूझबूझ रखने वाला वही अंजाम दे रहा है।
क़ौम और मिल्लत की ख़िदमत आज हर दीन की सूझबूझ रखने वाले का ख़ास मिशन है, दीनदारी की तहरीक से पहले और बाद की हालत इस बात की दलील है कि यह तहरीक लोगों के दिलों में घर बना चुकी है, जिन मदरसों की तादाद इस तहरीक से पहले उंगलियों पर गिनी जा सकती थी आज माशा अल्लाह उनकी तादाद सैकड़ों में पहुंच चुकी है।
इसका मतलब न केवल यह तहरीक ज़िंदा है बल्कि तहरीक पूरी क़ौम को ज़िंदा रखे हुए हैं, आप कोई मिशन, कोई नेक काम, कोई समाजी और क़ौमी तहरीक या इदारा नहीं दिखा सकते जहां ख़तीबे आज़म की तहरीक से जुड़े लोग डाइरेक्ट या अनडाइरेक्ट तौर पर मौजूद न हों, यह तहरीक के ज़िंदा होने की दलील नहीं तो और क्या है?
अगर हालात के पेशे नज़र अलग अलग जगहों पर शमा रौशन हो जाएं और हर शमा अपना काम कर रही हो तब भी उस असली शमा और चिराग़ को भुलाया नहीं जा सकता है जिसकी रौशनी से शमा जल कर अपने चारों तरफ़ उजाला कर रही है।
ख़तीबे आज़म की याद को ताज़ा करना उनकी फ़िक्र पर नज़र डालना उन्हें पढ़ना केवल उनके लिए अक़ीदत का इज़हार नहीं है बल्कि हमारे लिए सोंचने का मक़ाम है कि हम उस मज़बूत इरादे और बुलंद हौसले वाले अज़ीम मर्द के विचारों की रौशनी में यह देखें कि हम कहां खड़े हैं? और हमें कहां होना चाहिए?
आज भी हम अपने मोहसिन और मोअल्लिम की तरफ़ देखेंगे तो सारी मुश्किलों के बाद यही आवाज़ आएगी कि छोड़ो मुश्किलों को, मुश्किलें तो होती ही इसलिए हैं कि तुम्हारे जौहर को निखारा जा सके।
आज भी अना, घमंड और तकब्बुर के नक़्क़ार ख़ानों की आवाज़ों को दबाते हुए लिल्लाहियत में डूबी हुई एक दर्द भरी आवाज़ सुनाई देगी जो हमें आगे बढ़ने का हौसला दे रही है।
उठ कि ख़ुर्शीद का समाने सफ़र ताज़ा करें
नफ़से सूख़्ता ए शामो सहर ताज़ा करें

सैयद नजीबुल हसन ज़ैदी