23 मई 2020

खजूर का पेड़ और जन्नत

क्या अहले बैत (अलैहिमुस्सलाम) राफ़िज़ा हैं?


अबूल जारूद का बयान हैः

‘‘अल्लाह उस शख़्स के कानों को बेहरा कर दे जिस तरह उसने उसकी आँखों को अंधा किया उगर उस ने हज़रत अबू जाफ़र (इमाम मुहम्मद बाक़िर - अलैहिसस्लाम) को यह कहते हुए नहीं सुना जब किसी ने उन से यह कहा किः ‘‘फलाँ शख़्स हमें एक नाम से पुकारता है।’’

इमाम (अलैहिस्सलाम) ने पूछाः ‘‘वह नाम क्या है?’’

उस शख़्स ने जवाब दियाः ‘‘वह हमें राफ़िज़ा (ठुकराने वाले) पुकारता है।’’

तब इमाम बाक़िर (अलैहिस्सलाम) ने अपने सीने पर हाथ रखते हुए फ़रमायाः ‘‘मैं राफ़िज़ा में से हूँ और वह (राफ़िज़ी) हम में से है।’’

यह बात इमाम (अलैहिस्सलाम) ने तीन मर्तबा दोहराई। 

📖 हवाले
• अल-महासिन अज़ अहमद अल-बरकी, पृ. १५७, ह. ९१
• बिहारुल अनवार, जि. ६५, पृ. ९७, ह. २

19 मई 2020

यौमे क़ुद्स आख़िर क्या है? और माहे रमज़ान में क्यों मनाया जाता है?

क़ुद्स की तारीख़ समझने के लिए सबसे पहले हमें यह पता होना ज़रूरी है कि ईरान में सन 1979 में इस्लामी इन्क़लाब के रहबर हज़रत आयतुल्लाह इमाम ख़ुमैनी साहब ने यह एलान किया था कि माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को सारी दुनिया क़ुद्स दिवस की शक्ल में मनाएं।

दरअसल क़ुद्स का सीधा राब्ता मुसलमानों के क़िब्ला ए अव्वल बैतूल मुक़द्दस यानी मस्जिदे अक़्सा जो कि फ़िलिस्तीन में है, उसपर इस्राईल ने आज से 72 साल पहले तक़रीबन सन 1948 में नाजायज़ कब्ज़ा कर लिया था जो आज तक क़ायम है। इस्लामी तारीख़ के मुताबिक़ ख़ानए काबा से पहले मस्जिदे अक़्सा ही मुसलमानों का क़िब्ला हुआ करती थी और सारी दुनिया के मुसलमान बैतूल मुक़द्दस की तरफ़ (चौदह साल तक) रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उसके बाद ख़ुदा के हुक्म से क़िब्ला बैतूल मुक़द्दस से बदल कर ख़ानए काबा कर दिया गया था जो अभी भी मौजूदा क़िब्ला है। तारीख़ के मुताबिक़ मस्जिदे अक़्सा सिर्फ़ पहला क़िब्ला ही नहीं बल्कि कुछ और वजह से भी मुसलमानों के लिए खास और अहम है। रसूले ख़ुदा (स) अपनी ज़िन्दगी में मस्जिदे अक़्सा तशरीफ़ ले गए थे और वही से आप मेराज पर गए थे। इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के हवाले से हदीस में मिलता है कि आप फ़रमाते है: मस्जिदे अक़्सा इस्लाम की एक बहुत अहम मस्जिद है और यहां पर नमाज़ और इबादत करने का बहुत सवाब है। बहुत ही अफ़सोस की बात है कि यह मस्जिद आज ज़ालिम यहूदियों के नाजायज़ क़ब्ज़े में है।

इसकी शुरुवात सबसे पहले सन 1917 में हुई जब ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बिल्फौर ने फ़िलिस्तीन में एक यहूदी मुल्क़ बनाने की पेशकश रखी और कहा कि इस काम में लंदन पूरी तरह से मदद करेगा और उसके बाद हुआ भी यही कि धीरे धीरे दुनिया भर के यहूदियों को फ़िलिस्तीन पहुंचाया जाने लगा और बिलआख़िर 15 मई सन 1948 में इस्राईल को एक यहूदी देश की शक्ल में मंजूरी दे दी गई और दुनिया में पहली बार इस्राईल नाम का एक नजीस यहूदी मुल्क़ वजूद में आया। इसके बाद इस्राईल और अरब मुल्क़ों के दरमियान बहुत सी जंगे हुई मगर अरब मुल्क़ हार गए और काफ़ी जान माल का नुक़सान हो जाने और अपनी राज गद्दियां बचाने के ख़ौफ़ से सारे अरब मुल्क़ ख़ामोश हो गए और उनकी ख़ामोशी को अरब मुल्क़ों की तरफ़ से हरी झंडी भी मान लिया गया। जब सारे अरब मुल्क़ थक हार कर अपने मफ़ाद के ख़ातिर ख़ामोश हो गए तो ऐसे हालात में फिर वह मुजाहिदे मर्दे मैदान खड़ा हुआ जिसे दुनिया रूहुल्लाह अल मूसवी, इमाम ख़ुमैनी के नाम से जानती है।

तक़रीबन सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब ने नाजायज़ इस्राईली हुकूमत के मुक़ाबले में बैतूल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए माहे रमज़ान के आख़िरी अलविदा जुमे को यौमे क़ुद्स का नाम दिया और अपने अहम पैग़ाम में आपने यह एलान किया और तक़रीबन सभी मुस्लिम और अरब हुकूमतों के साथ साथ पूरी दुनिया को इस्राईली फ़ित्ने के बारे में आगाह किया और सारी दुनिया के मुसलमानों से अपील की कि वह इस नाजायज़ क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आपस में एकजुट हो जाएं और हर साल रमज़ान के अलविदा जुमे को यौमे क़ुद्स मनाएं और मुसलमानों के इस्लामी क़ानूनों और उनके हुक़ूक़ के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। जहां इमाम ख़ुमैनी ने यौमे क़ुद्स को इस्लाम के ज़िंदा होने का दिन क़रार दिया वहीं आपके अलावा बहुत से और दीगर आयतुल्लाह और इस्लामी उलमा ने भी यौमे क़ुद्स को तमाम मुसलमानों की इस्लामी ज़िम्मेदारी क़रार दी। लिहाज़ा सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब के इसी एलान के बाद से आज तक न सिर्फ़ भारत बल्कि सारी दुनिया के तमाम मुल्क़ों में जहां जहां भी मुसलमान, ख़ास तौर पर शिया मुस्लिम रहते है, वह माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को मस्जिदे अक़्सा और फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी के लिए एहतजाज करते हैं और रैलियां निकालते हैं।

हमे यह भी मालूम होना चाहिए कि आज तक फ़िलिस्तीनी अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं और जद्दोजहद कर रहे हैं और इस्राईल अपनी भरपूर ज़ालिम शैतानी ताक़त से उनको कुचलता आ रहा है, जब हम अपने घर में पुर सुकून होकर रोज़ा इफ़्तार करते हैं उस वक़्त उसी फ़िलिस्तीन में हज़ारों मुसलमान इस्राईली बमों का निशाना बनते हैं, उनकी इज़्ज़त और नामूस के साथ ज़ुल्म किया जाता है और यह सब आज तक जारी है और इस ज़ुल्म पर सारी दुनिया के मुमालिक ख़ामोश है, क्योंकि इस्राईल को अमरीका और लंदन का साथ मिला हुआ है।

इस साल दुनिया भर में लॉकडाउन की वजह से नमाज़े जुमा और एहतजाजी रैलियां मुमकिन नहीं है इसलिए इस बार हमें चाहिए कि इस्राईल के ख़िलाफ़ और बैतूल मुक़द्दस के हक़ में अपनी आवाज़ को ऑनलाइन बुलंद करें और जहां तक जितना मुमकिन हो सके मोमिनीन को इसके बारे में बताएं।

अल्लाह मज़लूमों के हक़ में हम सबकी दुआओं को क़ुबूल फ़रमाएं और ज़ालिमीन को निस्त व नाबूद करें... इंशा अल्लाह।

अंजुमने अब्बासिया, नगरम, आंध्र प्रदेश, भारत

10 मई 2020

ईरान का बादशाह मोहम्मद ख़ान शिया कैसे हुआ

अल्लामा हिल्ली की ज़िंदगी की अहम बात, उनके हाथों बादशाह मोहम्मद ख़ान ख़ुदा बंदा का शिया होना है, जिसकी वजह से और भी बहुत सारे लोग शिया हुए और शिया किताबें लोगों तक पहुंचना शुरू हुईं, जिसके बाद ईरान में जाफ़री मकतब और फ़िक़्ह को देश के मज़हब के रूप में एलान किया गया।

इस दास्तान को इस तरह विस्तार में बयान किया गया है कि 709 हिजरी में ईलख़ानियान सिलसिले के ग्यारहवें बादशाह ख़ुदा बंदा ने शिया मज़हब क़बूल कर लिया और शिया मज़हब को रायज करने और फैलाने में बहुत अहम रोल अदा किया और जब तबरेज़ गया और वहां के तख़्त पर बैठा तो उसे "बख़्शे गए बादशाह" का लक़ब दिया गया, उन्हीं के हुक्म से बाज़ार में नए सिक्के चलाना शुरू किया गया, जिन सिक्कों के एक तरफ़ पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. और दूसरी तरफ़ उसका अपना नाम लिखवाया।

ख़ुदा बंदा पहले सुन्नी मज़हब का मानने वाला था, कुछ कारणों ने उसके दिल को शीयत की तरफ़ मुड़ने पर मजबूर कर दिया, उलमा के बड़े बड़े जलसे और मीटिंग का बंदोबस्त करना उसको पसंद था, उन्हीं जलसों में से एक में अल्लामा हिल्ली भी पहुंचे और शाफ़ेई मज़हब के आलिम शैख़ निज़ाम दीन को मुनाज़िरे में शिकस्त दी, बादशाह, अल्लामा हिल्ली की दलीलें सुन कर हैरान रह गया और उसकी ज़ुबान उनके गुन गाने लगी और कहा: अल्लामा हिल्ली की दलीलें बिल्कुल साफ़ हैं, लेकिन हमारे उलमा जिस रास्ते पर चले हैं उसको देखते हुए फ़िलहाल उसका विरोध करना झगड़े का कारण बनेगा, इसलिए ज़रूरी है उन बातों पर पर्दा पड़ा रहे और लोग आपस में झगड़ा न करें।

उसके बाद भी मुनाज़िरे का सिलसिला चलता रहा और अल्लामा हिल्ली की दलीलों को सुन कर और इल्मी मर्तबे को देख कर बादशाह प्रभावित होता रहा, आख़िरकार बादशाह की तरफ़ से अपनी बीवी को तीन तलाक़ देने का मसला सामने आया, एक दिन बादशाह को ग़ुस्सा आया और एक ही बार में एक जगह पर तीन बार अपनी बीवी के लिए तुझे तलाक़ है का सीग़ा दोहराया, बाद में बादशाह को अपने उस काम पर शर्मिन्दगी हुई, इस्लाम के बड़े बड़े उलमा को बुलाया गया और उनसे मसले का हल पूछा गया, सब उलमा का एक ही जवाब था: इसके अलावा कोई चारा नहीं कि आप अपनी बीवी को तलाक़ दें, और फिर वह किसी मर्द के साथ शादी (हलाला) कर लें, फिर अगर वह तलाक़ देता है तो आप दोबारा उस औरत से शादी कर सकते हैं_ बादशाह ने पूछा, हर मसले में कुछ न कुछ मतभेद और गुंजाइश होती है, क्या इस मसले में ऐसा कुछ नहीं है?

सब उलमा ने मिल कर कहा: नहीं! उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है, वहां बैठा एक वज़ीर बोला: मैं एक आलिमे दीन को जानता हूं जो इराक़ के हिल्ला शहर में रहते हैं और उनके मुताबिक़ इस तरह की तलाक़ बातिल है, (उसकी मुराद अल्लामा हिल्ली है) ख़ुदा बंदा ने अल्लामा हिल्ली को ख़त लिख कर अपने पास बुला लिया, अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अल्लामा हिल्ली हिल्ले से सुल्तानिया (ज़नजान के क़रीब का इलाक़ा) की तरफ़ चल दिए, बादशाह के हुक्म से एक बहुत बड़ी मस्जिद का बंदोबस्त किया गया और सारे मज़हब के उलमा को दावत दी गई जिसमें अहले सुन्नत के चारों फिक़्हों के उलमा शामिल थे।

अल्लामा हिल्ली का उस मजलिस में आने का अंदाज़ सबसे अलग और अजीब था, जूते उतार कर हाथ में लिए, अहले मजलिस को सलाम किया और फिर जा कर बादशाह के बराबर में रखी कुर्सी पर बैठ गए, दूसरे सभी मज़हब के उलमा ने आपत्ति जताई और कहा: बादशाह हुज़ूर! क्या हमने पहले ही नहीं बता दिया था कि राफ़ज़ियों के उलमा में अक़्ल की कमी होती है।

बादशाह ने कहा उसने जो यह हरकत की है उसकी वजह ख़ुद उससे पूछो, अहले सुन्नत के उलमा ने अल्लामा हिल्ली से तीन सवाल पूछे:
1- क्यों इस मजलिस में आते हुए बादशाह के सामने नहीं झुके? और बादशाह को सजदा नहीं किया?
2- क्यों मजलिस के आदाब का ख़्याल नहीं किया और बादशाह के बराबर में बैठ गए?
3- क्यों अपने जूते उतार कर हाथ में ले गए?

अल्लामा हिल्ली ने जवाब दिया: पहले सवाल का जवाब यह है कि पैग़म्बर स.अ. हुकूमत में सबसे बुलंद मर्तबा रखते थे, जबकि लोग (सहाबा) उनको केवल सलाम करते थे, क़ुरआन का भी यही हुक्म है: जब घरों में दाख़िल हों तो अपने ऊपर सलाम करो, और ख़ुदा की तरफ़ से भी बा बरकत और पाकीज़ा सलाम हो...., और सारे इस्लामी उलमा का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि अल्लाह के अलावा किसी ग़ैर के सामने सजदा जायज़ नहीं है।
दूसरे सवाल का जवाब यह है कि चूंकि इस मजलिस में बादशाह के बराबर वाली कुर्सी के अलावा कोई और जगह ख़ाली नहीं थी इसलिए मैं वहां बैठ गया।

और जहां तक तीसरे सवाल की बात है कि क्यों अपने जूते हाथ में लाया और यह काम कोई अक़्लमंद नहीं करता तो उसकी वजह यह है कि मुझे डर था कि बाहर बैठे हंबली मज़हब के लोग मेरे जूते न चुरा लें, चूंकि पैग़म्बर स.अ. के दौर में उनके जूते अबू हनीफ़ा ने चुरा लिए थे, हंनफ़ी फ़िक़्ह के उलमा बोल पड़े: बिला वजह आरोप मत लगाएं, पैग़म्बर स.अ. के ज़माने में इमाम अबू हनीफ़ा पैदा ही नहीं हुए थे, अल्लामा हिल्ली ने कहा: मैं भूल गया था वह शाफ़ेई थे जिन्होंने पैग़म्बर स.अ. के जूते चुराए थे, जैसे ही यह कहा शाफ़ेई मज़हब के उलमा ने आपत्ति ज़ाहिर की और कहा: आरोप मत लगाइए इमाम शाफ़ेई तो इमाम अबू हनीफ़ा की वफ़ात के बाद पैदा हुए थे, अल्लामा हिल्ली ने कहा ग़लती हो गई वह जूता चुराने वाले मालिक थे, मालिकी मज़हब के लोगों ने एहतेजाज किया: चुप रहें, पैग़म्बर स.अ. और इमाम मालिक के बीच सौ साल से ज़्यादा का फ़ासला है, अल्लामा हिल्ली ने कहा फिर तो यह चोरी का काम अहमद इब्ने हंबल का होगा, हंबली उलमा बोल पड़े कि इमाम अहमद इब्ने हंबल तो इन सबके बाद के हैं।

उसी वक़्त अल्लामा हिल्ली ने बादशाह की तरफ़ रुख़ किया और कहा: आपने देख लिया कि यह सारे उलमा स्वीकार कर चुके कि अहले सुन्नत के चारों इमामों में से कोई एक भी पैग़म्बर स.अ. के दौर में नहीं थे, तो फिर यह क्या बिदअत है जो यह लोग लेकर आए हैं? अपने मुज्तहिदों में से चार लोगों को चुन लिया है और उनके फ़तवे पर अमल करते हैं, इनके बाद कोई भी आलिमे दीन चाहे चाहे जितना भी क़ाबिल हो, मुत्तक़ी हो, परहेज़गार हो, उसके फ़तवे पर अमल नहीं किया जाता..... बादशाह ख़ुदा बंदा ने अहले सुन्नत के उलमा की ओर देख कर पूछा: क्या सच है कि अहले सुन्नत के इमामों में से कोई भी पैग़म्बर स.अ. के ज़माने में नहीं था? उलमा ने जवाब दिया: जी हां, ऐसा ही है।

यहां पर अल्लामा हिल्ली बोल पड़े: केवल शिया मज़हब है जिसने अपना मज़हब अमीरुल मोमेनीन इमाम अली अ.स. से लिया है, वह अली जो रसूल की जान थे, चचाज़ाद भाई थे, और उनके वसी और जानशीन थे, बादशाह ने कहा इन बातों को फ़िलहाल रहने दो, मैंने तुम्हें एक अहम काम के लिए बुलाया है, क्या एक ही जगह बैठ कर एक साथ तीन तलाक़ देना सही है? अल्लामा ने कहा आपकी दी हुई तलाक़ बातिल है, चूंकि तलाक़ की शर्तें पूरी नहीं हैं, तलाक़ की शर्तों में से एक यह है कि दो आदिल मर्द तलाक़ के सीग़े को सुनें, क्या आपकी तलाक़ दो आदिल लोगों ने सुना था? बादशाह ने कहा: नहीं, अल्लामा ने कहा फिर तो यह तलाक़ हुई ही नहीं, आपकी बीवी अब भी आप पर हलाल है, (अगर तलाक़ हो भी जाती तो एक मजलिस में दी गई तीन तलाक़ एक तलाक़ के हुक्म में हैं)

इसके बाद भी अल्लामा ने अहले सुन्नत उलमा के साथ कई मुनाज़िरे किए और उनके सारे आरोपों के जवाब दिए, बादशाह ख़ुदा बंदा ने उसी मजलिस में शीयत को क़बूल करने एलान किया, उसके बाद अल्लामा हिल्ली का शुमार बादशाह के क़रीबियों में होने लगा और उन्होंने हुकूमत के इमकानात से इस्लाम और शीयत को मज़बूत किया।

इत्तेफाक़ की बात यह कि बादशाह ख़ुदा बंदा और अल्लामा हिल्ली दोनों एक ही साल 726 हिजरी में इस दुनिया से इंतेक़ाल कर गए।

(मुंतख़बुत तवारीख़, पेज 410, हिकयाते उलमा बा सलातीन पेज 690) SOURCE

09 मई 2020

सुलह व शांति


सुलहे इमाम हसन के चौदह सौ साल

इमाम हसन अ.स. की ऐतिहासिक सुलह ने इस्लाम की हिफ़ाज़त की ख़ातिर जो अहम भूमिका निभाई है उसे देख हर अक़्लमंद और मंझा हुआ सियासी इंसान भी आज तक दांतों के नीचे उंगली दबाए हुए है, हालांकि हंगामों की आदी दुनिया ने इस ख़ामोश लेकिन ऐतिहासिक कारनामे को उसका वह हक़ बिल्कुल नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए था, और इमाम हसन अ.स. का यह अज़ीम कारनामा भी आपकी अज़ीम शख़्सियत की तरह मज़लूमियत की भेंट चढ़ गया।


 दुनिया जानती है कि पैग़म्बर स.अ. के पाक व पाकीज़ा गुलिस्तान में जो फ़ज़ीलत और करामत के फूल हैं उनमें हर एक अपनी मिसाल ख़ुद ही है, उस इसमत के घराने का हर शख़्स एक दूसरे को मुकम्मल करने की वजह होने के बावजूद मर्तबे और अदब का ख़्याल रखते हुए अपने दौर का सबसे कामिल और बेहतरीन इंसान है और सबको अपने ओहदे और हालात के हिसाब से अपने कमाल को ज़ाहिर करने का पूरा पूरा हक़ है।
यह पूरे का पूरा फ़ज़ीलत का गुलिस्तान हम इसका ज़िक्र तो क्या उसके बारे में तसव्वुर भी नहीं कर सकते।
जिनमें से इस आर्टिकल में सुलह और बहादुरी की अज़ीम मिसाल इमाम हसन अ.स. का ज़िक्र करना मक़सद है, जो बहुत सारी सिफ़ात और कमालात में अकेले होने के साथ साथ अपनी अनोखी ख़िदमात को लेकर भी बे मिसाल हैं, जिनमें इबादत, इल्म, बहादुरी, सख़ावत, अदब, अख़लाक़ और भी बहुत सारी सिफ़ात शामिल हैं।
संक्षेप में इतना समझ लीजिए कि अकेले आपकी शख़्सियत में वह सारी अच्छाईयां जमा थीं जो सारे नेक लोगों में थीं।
और आपके कारनामे में सबसे अनोखा और ज़्यादा जिसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा वह आपका सुलह करना है।
पैग़म्बर स.अ. के दोनों शहज़ादों इमाम हसन अ.स. और इमाम हुसैन अ.स. ने इस्लाम की कश्ती को निजात दिलाने के लिए दो अलग अलग बेहतरीन और नुमायां काम अंजाम दिए हैं जिनके बिना असली इस्लाम तो बहुत दूर शायद उसके नाम भी बाक़ी रहना ना मुमकिन नहीं होता। Read Full