10 मई 2020

ईरान का बादशाह मोहम्मद ख़ान शिया कैसे हुआ

अल्लामा हिल्ली की ज़िंदगी की अहम बात, उनके हाथों बादशाह मोहम्मद ख़ान ख़ुदा बंदा का शिया होना है, जिसकी वजह से और भी बहुत सारे लोग शिया हुए और शिया किताबें लोगों तक पहुंचना शुरू हुईं, जिसके बाद ईरान में जाफ़री मकतब और फ़िक़्ह को देश के मज़हब के रूप में एलान किया गया।

इस दास्तान को इस तरह विस्तार में बयान किया गया है कि 709 हिजरी में ईलख़ानियान सिलसिले के ग्यारहवें बादशाह ख़ुदा बंदा ने शिया मज़हब क़बूल कर लिया और शिया मज़हब को रायज करने और फैलाने में बहुत अहम रोल अदा किया और जब तबरेज़ गया और वहां के तख़्त पर बैठा तो उसे "बख़्शे गए बादशाह" का लक़ब दिया गया, उन्हीं के हुक्म से बाज़ार में नए सिक्के चलाना शुरू किया गया, जिन सिक्कों के एक तरफ़ पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. और दूसरी तरफ़ उसका अपना नाम लिखवाया।

ख़ुदा बंदा पहले सुन्नी मज़हब का मानने वाला था, कुछ कारणों ने उसके दिल को शीयत की तरफ़ मुड़ने पर मजबूर कर दिया, उलमा के बड़े बड़े जलसे और मीटिंग का बंदोबस्त करना उसको पसंद था, उन्हीं जलसों में से एक में अल्लामा हिल्ली भी पहुंचे और शाफ़ेई मज़हब के आलिम शैख़ निज़ाम दीन को मुनाज़िरे में शिकस्त दी, बादशाह, अल्लामा हिल्ली की दलीलें सुन कर हैरान रह गया और उसकी ज़ुबान उनके गुन गाने लगी और कहा: अल्लामा हिल्ली की दलीलें बिल्कुल साफ़ हैं, लेकिन हमारे उलमा जिस रास्ते पर चले हैं उसको देखते हुए फ़िलहाल उसका विरोध करना झगड़े का कारण बनेगा, इसलिए ज़रूरी है उन बातों पर पर्दा पड़ा रहे और लोग आपस में झगड़ा न करें।

उसके बाद भी मुनाज़िरे का सिलसिला चलता रहा और अल्लामा हिल्ली की दलीलों को सुन कर और इल्मी मर्तबे को देख कर बादशाह प्रभावित होता रहा, आख़िरकार बादशाह की तरफ़ से अपनी बीवी को तीन तलाक़ देने का मसला सामने आया, एक दिन बादशाह को ग़ुस्सा आया और एक ही बार में एक जगह पर तीन बार अपनी बीवी के लिए तुझे तलाक़ है का सीग़ा दोहराया, बाद में बादशाह को अपने उस काम पर शर्मिन्दगी हुई, इस्लाम के बड़े बड़े उलमा को बुलाया गया और उनसे मसले का हल पूछा गया, सब उलमा का एक ही जवाब था: इसके अलावा कोई चारा नहीं कि आप अपनी बीवी को तलाक़ दें, और फिर वह किसी मर्द के साथ शादी (हलाला) कर लें, फिर अगर वह तलाक़ देता है तो आप दोबारा उस औरत से शादी कर सकते हैं_ बादशाह ने पूछा, हर मसले में कुछ न कुछ मतभेद और गुंजाइश होती है, क्या इस मसले में ऐसा कुछ नहीं है?

सब उलमा ने मिल कर कहा: नहीं! उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है, वहां बैठा एक वज़ीर बोला: मैं एक आलिमे दीन को जानता हूं जो इराक़ के हिल्ला शहर में रहते हैं और उनके मुताबिक़ इस तरह की तलाक़ बातिल है, (उसकी मुराद अल्लामा हिल्ली है) ख़ुदा बंदा ने अल्लामा हिल्ली को ख़त लिख कर अपने पास बुला लिया, अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अल्लामा हिल्ली हिल्ले से सुल्तानिया (ज़नजान के क़रीब का इलाक़ा) की तरफ़ चल दिए, बादशाह के हुक्म से एक बहुत बड़ी मस्जिद का बंदोबस्त किया गया और सारे मज़हब के उलमा को दावत दी गई जिसमें अहले सुन्नत के चारों फिक़्हों के उलमा शामिल थे।

अल्लामा हिल्ली का उस मजलिस में आने का अंदाज़ सबसे अलग और अजीब था, जूते उतार कर हाथ में लिए, अहले मजलिस को सलाम किया और फिर जा कर बादशाह के बराबर में रखी कुर्सी पर बैठ गए, दूसरे सभी मज़हब के उलमा ने आपत्ति जताई और कहा: बादशाह हुज़ूर! क्या हमने पहले ही नहीं बता दिया था कि राफ़ज़ियों के उलमा में अक़्ल की कमी होती है।

बादशाह ने कहा उसने जो यह हरकत की है उसकी वजह ख़ुद उससे पूछो, अहले सुन्नत के उलमा ने अल्लामा हिल्ली से तीन सवाल पूछे:
1- क्यों इस मजलिस में आते हुए बादशाह के सामने नहीं झुके? और बादशाह को सजदा नहीं किया?
2- क्यों मजलिस के आदाब का ख़्याल नहीं किया और बादशाह के बराबर में बैठ गए?
3- क्यों अपने जूते उतार कर हाथ में ले गए?

अल्लामा हिल्ली ने जवाब दिया: पहले सवाल का जवाब यह है कि पैग़म्बर स.अ. हुकूमत में सबसे बुलंद मर्तबा रखते थे, जबकि लोग (सहाबा) उनको केवल सलाम करते थे, क़ुरआन का भी यही हुक्म है: जब घरों में दाख़िल हों तो अपने ऊपर सलाम करो, और ख़ुदा की तरफ़ से भी बा बरकत और पाकीज़ा सलाम हो...., और सारे इस्लामी उलमा का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि अल्लाह के अलावा किसी ग़ैर के सामने सजदा जायज़ नहीं है।
दूसरे सवाल का जवाब यह है कि चूंकि इस मजलिस में बादशाह के बराबर वाली कुर्सी के अलावा कोई और जगह ख़ाली नहीं थी इसलिए मैं वहां बैठ गया।

और जहां तक तीसरे सवाल की बात है कि क्यों अपने जूते हाथ में लाया और यह काम कोई अक़्लमंद नहीं करता तो उसकी वजह यह है कि मुझे डर था कि बाहर बैठे हंबली मज़हब के लोग मेरे जूते न चुरा लें, चूंकि पैग़म्बर स.अ. के दौर में उनके जूते अबू हनीफ़ा ने चुरा लिए थे, हंनफ़ी फ़िक़्ह के उलमा बोल पड़े: बिला वजह आरोप मत लगाएं, पैग़म्बर स.अ. के ज़माने में इमाम अबू हनीफ़ा पैदा ही नहीं हुए थे, अल्लामा हिल्ली ने कहा: मैं भूल गया था वह शाफ़ेई थे जिन्होंने पैग़म्बर स.अ. के जूते चुराए थे, जैसे ही यह कहा शाफ़ेई मज़हब के उलमा ने आपत्ति ज़ाहिर की और कहा: आरोप मत लगाइए इमाम शाफ़ेई तो इमाम अबू हनीफ़ा की वफ़ात के बाद पैदा हुए थे, अल्लामा हिल्ली ने कहा ग़लती हो गई वह जूता चुराने वाले मालिक थे, मालिकी मज़हब के लोगों ने एहतेजाज किया: चुप रहें, पैग़म्बर स.अ. और इमाम मालिक के बीच सौ साल से ज़्यादा का फ़ासला है, अल्लामा हिल्ली ने कहा फिर तो यह चोरी का काम अहमद इब्ने हंबल का होगा, हंबली उलमा बोल पड़े कि इमाम अहमद इब्ने हंबल तो इन सबके बाद के हैं।

उसी वक़्त अल्लामा हिल्ली ने बादशाह की तरफ़ रुख़ किया और कहा: आपने देख लिया कि यह सारे उलमा स्वीकार कर चुके कि अहले सुन्नत के चारों इमामों में से कोई एक भी पैग़म्बर स.अ. के दौर में नहीं थे, तो फिर यह क्या बिदअत है जो यह लोग लेकर आए हैं? अपने मुज्तहिदों में से चार लोगों को चुन लिया है और उनके फ़तवे पर अमल करते हैं, इनके बाद कोई भी आलिमे दीन चाहे चाहे जितना भी क़ाबिल हो, मुत्तक़ी हो, परहेज़गार हो, उसके फ़तवे पर अमल नहीं किया जाता..... बादशाह ख़ुदा बंदा ने अहले सुन्नत के उलमा की ओर देख कर पूछा: क्या सच है कि अहले सुन्नत के इमामों में से कोई भी पैग़म्बर स.अ. के ज़माने में नहीं था? उलमा ने जवाब दिया: जी हां, ऐसा ही है।

यहां पर अल्लामा हिल्ली बोल पड़े: केवल शिया मज़हब है जिसने अपना मज़हब अमीरुल मोमेनीन इमाम अली अ.स. से लिया है, वह अली जो रसूल की जान थे, चचाज़ाद भाई थे, और उनके वसी और जानशीन थे, बादशाह ने कहा इन बातों को फ़िलहाल रहने दो, मैंने तुम्हें एक अहम काम के लिए बुलाया है, क्या एक ही जगह बैठ कर एक साथ तीन तलाक़ देना सही है? अल्लामा ने कहा आपकी दी हुई तलाक़ बातिल है, चूंकि तलाक़ की शर्तें पूरी नहीं हैं, तलाक़ की शर्तों में से एक यह है कि दो आदिल मर्द तलाक़ के सीग़े को सुनें, क्या आपकी तलाक़ दो आदिल लोगों ने सुना था? बादशाह ने कहा: नहीं, अल्लामा ने कहा फिर तो यह तलाक़ हुई ही नहीं, आपकी बीवी अब भी आप पर हलाल है, (अगर तलाक़ हो भी जाती तो एक मजलिस में दी गई तीन तलाक़ एक तलाक़ के हुक्म में हैं)

इसके बाद भी अल्लामा ने अहले सुन्नत उलमा के साथ कई मुनाज़िरे किए और उनके सारे आरोपों के जवाब दिए, बादशाह ख़ुदा बंदा ने उसी मजलिस में शीयत को क़बूल करने एलान किया, उसके बाद अल्लामा हिल्ली का शुमार बादशाह के क़रीबियों में होने लगा और उन्होंने हुकूमत के इमकानात से इस्लाम और शीयत को मज़बूत किया।

इत्तेफाक़ की बात यह कि बादशाह ख़ुदा बंदा और अल्लामा हिल्ली दोनों एक ही साल 726 हिजरी में इस दुनिया से इंतेक़ाल कर गए।

(मुंतख़बुत तवारीख़, पेज 410, हिकयाते उलमा बा सलातीन पेज 690) SOURCE

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