23 मई 2020

खजूर का पेड़ और जन्नत

क्या अहले बैत (अलैहिमुस्सलाम) राफ़िज़ा हैं?


अबूल जारूद का बयान हैः

‘‘अल्लाह उस शख़्स के कानों को बेहरा कर दे जिस तरह उसने उसकी आँखों को अंधा किया उगर उस ने हज़रत अबू जाफ़र (इमाम मुहम्मद बाक़िर - अलैहिसस्लाम) को यह कहते हुए नहीं सुना जब किसी ने उन से यह कहा किः ‘‘फलाँ शख़्स हमें एक नाम से पुकारता है।’’

इमाम (अलैहिस्सलाम) ने पूछाः ‘‘वह नाम क्या है?’’

उस शख़्स ने जवाब दियाः ‘‘वह हमें राफ़िज़ा (ठुकराने वाले) पुकारता है।’’

तब इमाम बाक़िर (अलैहिस्सलाम) ने अपने सीने पर हाथ रखते हुए फ़रमायाः ‘‘मैं राफ़िज़ा में से हूँ और वह (राफ़िज़ी) हम में से है।’’

यह बात इमाम (अलैहिस्सलाम) ने तीन मर्तबा दोहराई। 

📖 हवाले
• अल-महासिन अज़ अहमद अल-बरकी, पृ. १५७, ह. ९१
• बिहारुल अनवार, जि. ६५, पृ. ९७, ह. २

19 मई 2020

यौमे क़ुद्स आख़िर क्या है? और माहे रमज़ान में क्यों मनाया जाता है?

क़ुद्स की तारीख़ समझने के लिए सबसे पहले हमें यह पता होना ज़रूरी है कि ईरान में सन 1979 में इस्लामी इन्क़लाब के रहबर हज़रत आयतुल्लाह इमाम ख़ुमैनी साहब ने यह एलान किया था कि माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को सारी दुनिया क़ुद्स दिवस की शक्ल में मनाएं।

दरअसल क़ुद्स का सीधा राब्ता मुसलमानों के क़िब्ला ए अव्वल बैतूल मुक़द्दस यानी मस्जिदे अक़्सा जो कि फ़िलिस्तीन में है, उसपर इस्राईल ने आज से 72 साल पहले तक़रीबन सन 1948 में नाजायज़ कब्ज़ा कर लिया था जो आज तक क़ायम है। इस्लामी तारीख़ के मुताबिक़ ख़ानए काबा से पहले मस्जिदे अक़्सा ही मुसलमानों का क़िब्ला हुआ करती थी और सारी दुनिया के मुसलमान बैतूल मुक़द्दस की तरफ़ (चौदह साल तक) रुख़ करके नमाज़ पढ़ते थे, उसके बाद ख़ुदा के हुक्म से क़िब्ला बैतूल मुक़द्दस से बदल कर ख़ानए काबा कर दिया गया था जो अभी भी मौजूदा क़िब्ला है। तारीख़ के मुताबिक़ मस्जिदे अक़्सा सिर्फ़ पहला क़िब्ला ही नहीं बल्कि कुछ और वजह से भी मुसलमानों के लिए खास और अहम है। रसूले ख़ुदा (स) अपनी ज़िन्दगी में मस्जिदे अक़्सा तशरीफ़ ले गए थे और वही से आप मेराज पर गए थे। इसी तरह इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) के हवाले से हदीस में मिलता है कि आप फ़रमाते है: मस्जिदे अक़्सा इस्लाम की एक बहुत अहम मस्जिद है और यहां पर नमाज़ और इबादत करने का बहुत सवाब है। बहुत ही अफ़सोस की बात है कि यह मस्जिद आज ज़ालिम यहूदियों के नाजायज़ क़ब्ज़े में है।

इसकी शुरुवात सबसे पहले सन 1917 में हुई जब ब्रिटेन के तत्कालीन विदेश मंत्री जेम्स बिल्फौर ने फ़िलिस्तीन में एक यहूदी मुल्क़ बनाने की पेशकश रखी और कहा कि इस काम में लंदन पूरी तरह से मदद करेगा और उसके बाद हुआ भी यही कि धीरे धीरे दुनिया भर के यहूदियों को फ़िलिस्तीन पहुंचाया जाने लगा और बिलआख़िर 15 मई सन 1948 में इस्राईल को एक यहूदी देश की शक्ल में मंजूरी दे दी गई और दुनिया में पहली बार इस्राईल नाम का एक नजीस यहूदी मुल्क़ वजूद में आया। इसके बाद इस्राईल और अरब मुल्क़ों के दरमियान बहुत सी जंगे हुई मगर अरब मुल्क़ हार गए और काफ़ी जान माल का नुक़सान हो जाने और अपनी राज गद्दियां बचाने के ख़ौफ़ से सारे अरब मुल्क़ ख़ामोश हो गए और उनकी ख़ामोशी को अरब मुल्क़ों की तरफ़ से हरी झंडी भी मान लिया गया। जब सारे अरब मुल्क़ थक हार कर अपने मफ़ाद के ख़ातिर ख़ामोश हो गए तो ऐसे हालात में फिर वह मुजाहिदे मर्दे मैदान खड़ा हुआ जिसे दुनिया रूहुल्लाह अल मूसवी, इमाम ख़ुमैनी के नाम से जानती है।

तक़रीबन सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब ने नाजायज़ इस्राईली हुकूमत के मुक़ाबले में बैतूल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए माहे रमज़ान के आख़िरी अलविदा जुमे को यौमे क़ुद्स का नाम दिया और अपने अहम पैग़ाम में आपने यह एलान किया और तक़रीबन सभी मुस्लिम और अरब हुकूमतों के साथ साथ पूरी दुनिया को इस्राईली फ़ित्ने के बारे में आगाह किया और सारी दुनिया के मुसलमानों से अपील की कि वह इस नाजायज़ क़ब्ज़े के ख़िलाफ़ आपस में एकजुट हो जाएं और हर साल रमज़ान के अलविदा जुमे को यौमे क़ुद्स मनाएं और मुसलमानों के इस्लामी क़ानूनों और उनके हुक़ूक़ के लिए अपनी आवाज़ बुलंद करें। जहां इमाम ख़ुमैनी ने यौमे क़ुद्स को इस्लाम के ज़िंदा होने का दिन क़रार दिया वहीं आपके अलावा बहुत से और दीगर आयतुल्लाह और इस्लामी उलमा ने भी यौमे क़ुद्स को तमाम मुसलमानों की इस्लामी ज़िम्मेदारी क़रार दी। लिहाज़ा सन 1979 में इमाम ख़ुमैनी साहब के इसी एलान के बाद से आज तक न सिर्फ़ भारत बल्कि सारी दुनिया के तमाम मुल्क़ों में जहां जहां भी मुसलमान, ख़ास तौर पर शिया मुस्लिम रहते है, वह माहे रमज़ान के अलविदा जुमे को मस्जिदे अक़्सा और फ़िलिस्तीनियों की आज़ादी के लिए एहतजाज करते हैं और रैलियां निकालते हैं।

हमे यह भी मालूम होना चाहिए कि आज तक फ़िलिस्तीनी अपनी आज़ादी के लिए लड़ रहे हैं और जद्दोजहद कर रहे हैं और इस्राईल अपनी भरपूर ज़ालिम शैतानी ताक़त से उनको कुचलता आ रहा है, जब हम अपने घर में पुर सुकून होकर रोज़ा इफ़्तार करते हैं उस वक़्त उसी फ़िलिस्तीन में हज़ारों मुसलमान इस्राईली बमों का निशाना बनते हैं, उनकी इज़्ज़त और नामूस के साथ ज़ुल्म किया जाता है और यह सब आज तक जारी है और इस ज़ुल्म पर सारी दुनिया के मुमालिक ख़ामोश है, क्योंकि इस्राईल को अमरीका और लंदन का साथ मिला हुआ है।

इस साल दुनिया भर में लॉकडाउन की वजह से नमाज़े जुमा और एहतजाजी रैलियां मुमकिन नहीं है इसलिए इस बार हमें चाहिए कि इस्राईल के ख़िलाफ़ और बैतूल मुक़द्दस के हक़ में अपनी आवाज़ को ऑनलाइन बुलंद करें और जहां तक जितना मुमकिन हो सके मोमिनीन को इसके बारे में बताएं।

अल्लाह मज़लूमों के हक़ में हम सबकी दुआओं को क़ुबूल फ़रमाएं और ज़ालिमीन को निस्त व नाबूद करें... इंशा अल्लाह।

अंजुमने अब्बासिया, नगरम, आंध्र प्रदेश, भारत

10 मई 2020

ईरान का बादशाह मोहम्मद ख़ान शिया कैसे हुआ

अल्लामा हिल्ली की ज़िंदगी की अहम बात, उनके हाथों बादशाह मोहम्मद ख़ान ख़ुदा बंदा का शिया होना है, जिसकी वजह से और भी बहुत सारे लोग शिया हुए और शिया किताबें लोगों तक पहुंचना शुरू हुईं, जिसके बाद ईरान में जाफ़री मकतब और फ़िक़्ह को देश के मज़हब के रूप में एलान किया गया।

इस दास्तान को इस तरह विस्तार में बयान किया गया है कि 709 हिजरी में ईलख़ानियान सिलसिले के ग्यारहवें बादशाह ख़ुदा बंदा ने शिया मज़हब क़बूल कर लिया और शिया मज़हब को रायज करने और फैलाने में बहुत अहम रोल अदा किया और जब तबरेज़ गया और वहां के तख़्त पर बैठा तो उसे "बख़्शे गए बादशाह" का लक़ब दिया गया, उन्हीं के हुक्म से बाज़ार में नए सिक्के चलाना शुरू किया गया, जिन सिक्कों के एक तरफ़ पैग़म्बर स.अ. और मासूमीन अ.स. और दूसरी तरफ़ उसका अपना नाम लिखवाया।

ख़ुदा बंदा पहले सुन्नी मज़हब का मानने वाला था, कुछ कारणों ने उसके दिल को शीयत की तरफ़ मुड़ने पर मजबूर कर दिया, उलमा के बड़े बड़े जलसे और मीटिंग का बंदोबस्त करना उसको पसंद था, उन्हीं जलसों में से एक में अल्लामा हिल्ली भी पहुंचे और शाफ़ेई मज़हब के आलिम शैख़ निज़ाम दीन को मुनाज़िरे में शिकस्त दी, बादशाह, अल्लामा हिल्ली की दलीलें सुन कर हैरान रह गया और उसकी ज़ुबान उनके गुन गाने लगी और कहा: अल्लामा हिल्ली की दलीलें बिल्कुल साफ़ हैं, लेकिन हमारे उलमा जिस रास्ते पर चले हैं उसको देखते हुए फ़िलहाल उसका विरोध करना झगड़े का कारण बनेगा, इसलिए ज़रूरी है उन बातों पर पर्दा पड़ा रहे और लोग आपस में झगड़ा न करें।

उसके बाद भी मुनाज़िरे का सिलसिला चलता रहा और अल्लामा हिल्ली की दलीलों को सुन कर और इल्मी मर्तबे को देख कर बादशाह प्रभावित होता रहा, आख़िरकार बादशाह की तरफ़ से अपनी बीवी को तीन तलाक़ देने का मसला सामने आया, एक दिन बादशाह को ग़ुस्सा आया और एक ही बार में एक जगह पर तीन बार अपनी बीवी के लिए तुझे तलाक़ है का सीग़ा दोहराया, बाद में बादशाह को अपने उस काम पर शर्मिन्दगी हुई, इस्लाम के बड़े बड़े उलमा को बुलाया गया और उनसे मसले का हल पूछा गया, सब उलमा का एक ही जवाब था: इसके अलावा कोई चारा नहीं कि आप अपनी बीवी को तलाक़ दें, और फिर वह किसी मर्द के साथ शादी (हलाला) कर लें, फिर अगर वह तलाक़ देता है तो आप दोबारा उस औरत से शादी कर सकते हैं_ बादशाह ने पूछा, हर मसले में कुछ न कुछ मतभेद और गुंजाइश होती है, क्या इस मसले में ऐसा कुछ नहीं है?

सब उलमा ने मिल कर कहा: नहीं! उसके अलावा कोई रास्ता नहीं है, वहां बैठा एक वज़ीर बोला: मैं एक आलिमे दीन को जानता हूं जो इराक़ के हिल्ला शहर में रहते हैं और उनके मुताबिक़ इस तरह की तलाक़ बातिल है, (उसकी मुराद अल्लामा हिल्ली है) ख़ुदा बंदा ने अल्लामा हिल्ली को ख़त लिख कर अपने पास बुला लिया, अपनी ज़िम्मेदारी समझते हुए अल्लामा हिल्ली हिल्ले से सुल्तानिया (ज़नजान के क़रीब का इलाक़ा) की तरफ़ चल दिए, बादशाह के हुक्म से एक बहुत बड़ी मस्जिद का बंदोबस्त किया गया और सारे मज़हब के उलमा को दावत दी गई जिसमें अहले सुन्नत के चारों फिक़्हों के उलमा शामिल थे।

अल्लामा हिल्ली का उस मजलिस में आने का अंदाज़ सबसे अलग और अजीब था, जूते उतार कर हाथ में लिए, अहले मजलिस को सलाम किया और फिर जा कर बादशाह के बराबर में रखी कुर्सी पर बैठ गए, दूसरे सभी मज़हब के उलमा ने आपत्ति जताई और कहा: बादशाह हुज़ूर! क्या हमने पहले ही नहीं बता दिया था कि राफ़ज़ियों के उलमा में अक़्ल की कमी होती है।

बादशाह ने कहा उसने जो यह हरकत की है उसकी वजह ख़ुद उससे पूछो, अहले सुन्नत के उलमा ने अल्लामा हिल्ली से तीन सवाल पूछे:
1- क्यों इस मजलिस में आते हुए बादशाह के सामने नहीं झुके? और बादशाह को सजदा नहीं किया?
2- क्यों मजलिस के आदाब का ख़्याल नहीं किया और बादशाह के बराबर में बैठ गए?
3- क्यों अपने जूते उतार कर हाथ में ले गए?

अल्लामा हिल्ली ने जवाब दिया: पहले सवाल का जवाब यह है कि पैग़म्बर स.अ. हुकूमत में सबसे बुलंद मर्तबा रखते थे, जबकि लोग (सहाबा) उनको केवल सलाम करते थे, क़ुरआन का भी यही हुक्म है: जब घरों में दाख़िल हों तो अपने ऊपर सलाम करो, और ख़ुदा की तरफ़ से भी बा बरकत और पाकीज़ा सलाम हो...., और सारे इस्लामी उलमा का इस बात पर इत्तेफ़ाक़ है कि अल्लाह के अलावा किसी ग़ैर के सामने सजदा जायज़ नहीं है।
दूसरे सवाल का जवाब यह है कि चूंकि इस मजलिस में बादशाह के बराबर वाली कुर्सी के अलावा कोई और जगह ख़ाली नहीं थी इसलिए मैं वहां बैठ गया।

और जहां तक तीसरे सवाल की बात है कि क्यों अपने जूते हाथ में लाया और यह काम कोई अक़्लमंद नहीं करता तो उसकी वजह यह है कि मुझे डर था कि बाहर बैठे हंबली मज़हब के लोग मेरे जूते न चुरा लें, चूंकि पैग़म्बर स.अ. के दौर में उनके जूते अबू हनीफ़ा ने चुरा लिए थे, हंनफ़ी फ़िक़्ह के उलमा बोल पड़े: बिला वजह आरोप मत लगाएं, पैग़म्बर स.अ. के ज़माने में इमाम अबू हनीफ़ा पैदा ही नहीं हुए थे, अल्लामा हिल्ली ने कहा: मैं भूल गया था वह शाफ़ेई थे जिन्होंने पैग़म्बर स.अ. के जूते चुराए थे, जैसे ही यह कहा शाफ़ेई मज़हब के उलमा ने आपत्ति ज़ाहिर की और कहा: आरोप मत लगाइए इमाम शाफ़ेई तो इमाम अबू हनीफ़ा की वफ़ात के बाद पैदा हुए थे, अल्लामा हिल्ली ने कहा ग़लती हो गई वह जूता चुराने वाले मालिक थे, मालिकी मज़हब के लोगों ने एहतेजाज किया: चुप रहें, पैग़म्बर स.अ. और इमाम मालिक के बीच सौ साल से ज़्यादा का फ़ासला है, अल्लामा हिल्ली ने कहा फिर तो यह चोरी का काम अहमद इब्ने हंबल का होगा, हंबली उलमा बोल पड़े कि इमाम अहमद इब्ने हंबल तो इन सबके बाद के हैं।

उसी वक़्त अल्लामा हिल्ली ने बादशाह की तरफ़ रुख़ किया और कहा: आपने देख लिया कि यह सारे उलमा स्वीकार कर चुके कि अहले सुन्नत के चारों इमामों में से कोई एक भी पैग़म्बर स.अ. के दौर में नहीं थे, तो फिर यह क्या बिदअत है जो यह लोग लेकर आए हैं? अपने मुज्तहिदों में से चार लोगों को चुन लिया है और उनके फ़तवे पर अमल करते हैं, इनके बाद कोई भी आलिमे दीन चाहे चाहे जितना भी क़ाबिल हो, मुत्तक़ी हो, परहेज़गार हो, उसके फ़तवे पर अमल नहीं किया जाता..... बादशाह ख़ुदा बंदा ने अहले सुन्नत के उलमा की ओर देख कर पूछा: क्या सच है कि अहले सुन्नत के इमामों में से कोई भी पैग़म्बर स.अ. के ज़माने में नहीं था? उलमा ने जवाब दिया: जी हां, ऐसा ही है।

यहां पर अल्लामा हिल्ली बोल पड़े: केवल शिया मज़हब है जिसने अपना मज़हब अमीरुल मोमेनीन इमाम अली अ.स. से लिया है, वह अली जो रसूल की जान थे, चचाज़ाद भाई थे, और उनके वसी और जानशीन थे, बादशाह ने कहा इन बातों को फ़िलहाल रहने दो, मैंने तुम्हें एक अहम काम के लिए बुलाया है, क्या एक ही जगह बैठ कर एक साथ तीन तलाक़ देना सही है? अल्लामा ने कहा आपकी दी हुई तलाक़ बातिल है, चूंकि तलाक़ की शर्तें पूरी नहीं हैं, तलाक़ की शर्तों में से एक यह है कि दो आदिल मर्द तलाक़ के सीग़े को सुनें, क्या आपकी तलाक़ दो आदिल लोगों ने सुना था? बादशाह ने कहा: नहीं, अल्लामा ने कहा फिर तो यह तलाक़ हुई ही नहीं, आपकी बीवी अब भी आप पर हलाल है, (अगर तलाक़ हो भी जाती तो एक मजलिस में दी गई तीन तलाक़ एक तलाक़ के हुक्म में हैं)

इसके बाद भी अल्लामा ने अहले सुन्नत उलमा के साथ कई मुनाज़िरे किए और उनके सारे आरोपों के जवाब दिए, बादशाह ख़ुदा बंदा ने उसी मजलिस में शीयत को क़बूल करने एलान किया, उसके बाद अल्लामा हिल्ली का शुमार बादशाह के क़रीबियों में होने लगा और उन्होंने हुकूमत के इमकानात से इस्लाम और शीयत को मज़बूत किया।

इत्तेफाक़ की बात यह कि बादशाह ख़ुदा बंदा और अल्लामा हिल्ली दोनों एक ही साल 726 हिजरी में इस दुनिया से इंतेक़ाल कर गए।

(मुंतख़बुत तवारीख़, पेज 410, हिकयाते उलमा बा सलातीन पेज 690) SOURCE

09 मई 2020

सुलह व शांति


सुलहे इमाम हसन के चौदह सौ साल

इमाम हसन अ.स. की ऐतिहासिक सुलह ने इस्लाम की हिफ़ाज़त की ख़ातिर जो अहम भूमिका निभाई है उसे देख हर अक़्लमंद और मंझा हुआ सियासी इंसान भी आज तक दांतों के नीचे उंगली दबाए हुए है, हालांकि हंगामों की आदी दुनिया ने इस ख़ामोश लेकिन ऐतिहासिक कारनामे को उसका वह हक़ बिल्कुल नहीं दिया जो उसे मिलना चाहिए था, और इमाम हसन अ.स. का यह अज़ीम कारनामा भी आपकी अज़ीम शख़्सियत की तरह मज़लूमियत की भेंट चढ़ गया।


 दुनिया जानती है कि पैग़म्बर स.अ. के पाक व पाकीज़ा गुलिस्तान में जो फ़ज़ीलत और करामत के फूल हैं उनमें हर एक अपनी मिसाल ख़ुद ही है, उस इसमत के घराने का हर शख़्स एक दूसरे को मुकम्मल करने की वजह होने के बावजूद मर्तबे और अदब का ख़्याल रखते हुए अपने दौर का सबसे कामिल और बेहतरीन इंसान है और सबको अपने ओहदे और हालात के हिसाब से अपने कमाल को ज़ाहिर करने का पूरा पूरा हक़ है।
यह पूरे का पूरा फ़ज़ीलत का गुलिस्तान हम इसका ज़िक्र तो क्या उसके बारे में तसव्वुर भी नहीं कर सकते।
जिनमें से इस आर्टिकल में सुलह और बहादुरी की अज़ीम मिसाल इमाम हसन अ.स. का ज़िक्र करना मक़सद है, जो बहुत सारी सिफ़ात और कमालात में अकेले होने के साथ साथ अपनी अनोखी ख़िदमात को लेकर भी बे मिसाल हैं, जिनमें इबादत, इल्म, बहादुरी, सख़ावत, अदब, अख़लाक़ और भी बहुत सारी सिफ़ात शामिल हैं।
संक्षेप में इतना समझ लीजिए कि अकेले आपकी शख़्सियत में वह सारी अच्छाईयां जमा थीं जो सारे नेक लोगों में थीं।
और आपके कारनामे में सबसे अनोखा और ज़्यादा जिसने लोगों का ध्यान अपनी तरफ़ खींचा वह आपका सुलह करना है।
पैग़म्बर स.अ. के दोनों शहज़ादों इमाम हसन अ.स. और इमाम हुसैन अ.स. ने इस्लाम की कश्ती को निजात दिलाने के लिए दो अलग अलग बेहतरीन और नुमायां काम अंजाम दिए हैं जिनके बिना असली इस्लाम तो बहुत दूर शायद उसके नाम भी बाक़ी रहना ना मुमकिन नहीं होता। Read Full

26 अप्रैल 2020

अबू लहेब का हश्र


 रवायात में आया है के बद्र की जंग में क़ुरैश के मुश्रिकीन को  बुरी हार के हुई।  
अबू लहब इस जंग में शरीक नहीं था।  
जंग में हारे अबू सुफियान से रिपोर्ट मांगी।  
अबू सुफियान ने क़ुरैश की हार बयान की और कहा के इस जंग में आसमान और ज़मीन के दरमियान  ऐसे सवार देखे जो मोहम्मद की मदद के लिए आये थे। 
इस मौक़े पर अब्बास के एक ग़ुलाम "अबू राफ़े" ने कहा; मैं वहां बैठा हुआ था उसने अपने हाथ उठाते  हुए कहा: वह आसमानी फ़रिश्ते थे। 
इस पर अबू लहब भड़क उठा और उसने एक ज़ोरदार थप्पड़ मारा और ज़मीन पर पटक दिया और अपनी भड़ास निकालने के लिए अबू राफे को पीटे जा रहा था। 
वहाँ अब्बास की बीवी "उम्मुल फ़ज़्ल" भी मौजूद थी। उसने एक छड़ी उठाई और अबू लहब के सर पर दे मारी और कहा : क्या तूने इस कमज़ोर आदमी को अकेला समझा है?
अबू लहब का सर फट गया और उस से खून बहने लगा। 
सात दिन के बाद अस के बदन में बदबू पैदा हो गई , उसके मुंह पर ताऊन के दाने निकल आये और वह उसी बीमारी से वासिले जहन्नम हो गया। 
उसके बदन से इतनी बदबू आ रही थी के लोग उसके नज़दीक जाने की जुरअत नहीं करते थे। 
उसे मक्का से बाहर ले जाया गया और दूर से उस पर पानी डाला और उस के बाद उसपर पथ्थर फेंके , यहाँ तक के उस का नजिस बदन पथ्थर और मिटटी के नीचे छुप गया। 

Khud pasandi | Danishwaro Ke liye Shaitan

23 अप्रैल 2020

रोज़े के दौरान हमारे जिस्म का रद्दे अमल

रोज़े के दौरान हमारे जिस्म का रद्दे अमल (Reaction) क्या होता है?
इस बारे में कुछ दिलचस्प मालूमात:


पहले दो रोज़े:

पहले ही दिन ब्लड शुगर लेवल गिरता है यानी ख़ून से चीनी के ख़तरनाक असरात का दर्जा कम हो जाता है।

दिल की धड़कन सुस्त हो जाती है और ख़ून का दबाव कम हो जाता है। नसें जमाशुदा ग्लाइकोजन को आज़ाद कर देती हैं। जिसकी वजह से जिस्मानी कमज़ोरी का एहसास उजागर होने लगता है। ज़हरीले माद्दों की सफ़ाई के पहले मरहले के नतीज़े में सरदर्द, सर का चकराना, मुंह का बदबूदार होना और ज़बान पर मवाद जमा होता है।

तीसरे से सातवें रोज़े तक:

जिस्म की चर्बी टूट फूट का शिकार होती है और पहले मरहले में ग्लूकोज में बदल जाती है। कुछ लोगों में चमड़ी मुलायम और चिकना हो जाती है। जिस्म भूख का आदी होना शुरु हो जाता है और इस तरह साल भर मसरूफ़ रहने वाला हाज़मा सिस्टम छुट्टी मनाता है।

ख़ून के सफ़ेद जरासीम (white blood cells) और इम्युनिटी (रोग प्रतिकार शक्ति) में बढ़ोतरी शुरू हो जाती है, हो सकता है रोज़ेदार के फेफड़ों में मामूली तकलीफ़ हो इसलिए कि ज़हरीले माद्दों की सफ़ाई का काम शुरू हो चुका है। आंतों और कोलोन की मरम्मत का काम शुरू हो जाता है। आंतों की दीवारों पर जमा मवाद ढीला होना शुरू हो जाता है।

आठवें से पंद्रहवें रोज़े तक:

आप पहले से चुस्त महसूस करते हैं। दिमाग़ी तौर पर भी चुस्त और हल्का महसूस करते हैं, हो सकता है कोई पुरानी चोट या ज़ख़्म महसूस होना शुरू हो जाए। इसलिए कि आपका जिस्म अपने बचाव के लिए पहले से ज़ियादा एक्टिव और मज़बूत हो चुका होता है। जिस्म अपने मुर्दा सेल्स को खाना शुरू कर देता है। जिनको आमतौर से केमोथेरेपी से मारने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से सेल्स में पुरानी बीमारियों और दर्द का एहसास बढ़ जाता है। नाड़ियों और टांगों में तनाव इसी अमल का क़ुदरती नतीजा होता है जो इम्युनिटी के जारी अमल की निशानी है।

रोज़ाना नमक के ग़रारे नसों की अकड़न का बेहतरीन इलाज है।

सोलहवें से तीसवें रोज़े तक:

जिस्म पूरी तरह भूक और प्यास को बर्दाश्त का आदी हो चुका होता है। आप अपने आप को चुस्त, चाक व चौबंद महसूस करते हैं।

इन दिनों आप की ज़बान बिल्कुल साफ़ और सुर्ख़ हो जाती है। सांस में भी ताज़गी आ जाती है। जिस्म के सारे ज़हरीले माद्दों का ख़ात्मा हो चुका होता है, हाज़में के सिस्टम की मरम्मत हो चुकी होती है। जिस्म से फ़ालतू चर्बी और ख़राब माद्दे निकल चुके होते हैं। बदन अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने फ़राएज़ अदा करना शुरू कर देता है।

बीस रोज़ों के बाद दिमाग़ और याददाश्त तेज़ हो जाते हैं। तवज्जो और सोच को मरकूज़ करने की सलाहियत बढ़ जाती है। बेशक बदन और रूह तीसरे अशरे की बरकात को भरपूर अंदाज़ से अदा करने के क़ाबिल हो जाते हैं। (शब ए क़द्र भी बीसवें रोज़े के बाद है)

यह तो दुनिया का फ़ायदा रहा जिसे बेशक हमारे ख़ालिक़ अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमारी ही भलाई के लिए हम पर वाजिब किया। मगर देखिए उसका अंदाज़े करीमाना कि उसके एहकाम मानने से दुनिया के साथ साथ हमारी आख़िरत भी संवारने का बेहतरीन बंदोबस्त कर दिया।

21 अप्रैल 2020

कोरोना में सबसे बड़ा खतरा


सबसे बड़ा खतरा नाई की दुकान से  ही  है।
 यह खतरा लम्बे समय तक बरकरार रहेगा।
 नाई एक तौलीये से कम से कम 4 से 5 लोगों की नाक रगड़ता है,
अमेरिका के स्वास्थ्य विभाग के प्रमुख जे. एन्थोनी ने बताया है कि 
अमेरिका में 50 प्रतिशत मौतें ऐसे ही हुई है जो सैलून होकर आये थे।
हम संक्रमित मरीज के सम्पर्क में आये तो टिकट कटना निश्चित है।
जब तक कोरोना एकदम से खत्म नहीं हो जाता हम सैलून जाकर सेविंग कराने बाल कटवाने की सोच भी नहीं सकते।
 नाई अनेक लोगों के सम्पर्क में रहेगा,
 नाई का तोलिया, नाई का उस्तरा नाई का ब्रश, कुर्सी  आदि काफी लोग इस्तेमाल करते है 
स्थति सामान्य होने के बाद भी खतरा बरकरार रहेगा।
सावधान रहें।

वह आदमी पक्के इरादों और मुकम्मल यक़ीन वाला था

साम्राज्यवाद और प्रतिगामी की क़ैंची से हमेशा ही ऊंची उड़ान भरने वालों के परों को कतरा जाता रहा रहा है।
यह और बात है कि ऊंची उड़ान भरने वाले बाज़ों की उड़ान परों के कतरे जाने के बावजूद इतनी ऊंची होती है कि उस तक पहुंचना मुमकिन नहीं होता।
आप इतिहास उठा कर देख लीजिए साम्राज्यवाद और प्रतिगामी विचारधारा रखने वाले हमेशा आज़ाद फ़िक्र रखने वालों के ख़िलाफ़ मैदान में डटे दिखाई देंगे उनके साथ कुछ ऐसे निजी फ़ायदे के पीछे भागने वाले भी होंगे जिनकी दाल रोटी कभी पर्दे की आड़ में तो कभी बिना पर्दे के इसी पर डिपेंड है कि वह हर वैल्यू का सौदा करें, हर तहरीक का गला घोंटने के लिए तैयार रहें, हर तरह की जागरूकता को अपने लिए मौत का पैग़ाम समझें।
यह निजी फ़ायदे के भूखे लोग हमेशा प्रतिगामी विचारधारा रखने वाले लोगों के साथ साम्राज्यवाद के देव की आंखों का तारा रहे हैं उनके साथ एक और वर्ग खड़ा दिखाई देता है जो मसलेहत पसंदों का है, इन मसलेहत की चादर लपेटे रहने वालों ने साम्राज्यवाद और प्रतिगामी फ़िक्र वालों के साथ मिलकर वक़्त के ग़ुलामों का हमेशा बचाव किया है।
और इन्हीं के बचाव की वजह से दीन में बिदअत का चलन फैलना शुरू हुआ और दीन ही के नाम पर दीन का चेहरा बिगाड़ा जाता रहा, जबकि दीन में ग़ैर दीनी बातों को शामिल करने का फ़ायदा कहीं न कहीं इन्हीं प्रतिगामी सोंच वालों और साम्राज्यवाद के वकीलों, निजी स्वार्थ वालों और दल बदलुओं को मिलता रहा जो दीन के नाम पर लोगों को बेवक़ूफ़ बना कर अपना उल्लू सीधा करते रहे, जबकि मसलेहत की चादर ओढ़े रहने वाले इन लोगों के लिए बचाव के तरीक़े निकालते रहे,
प्रतिगामी सोंच हो या साम्राज्यवाद के चरणों में आस्था के फूल निछावर करने वाले पत्थरों के पुतले और दीनी कवच में लिपटे हुए इल्हाद और बे दीनी रस्मों के बुत इन सब पर उपमहाद्वीप (भारत और पाकिस्तान) में कड़ा प्रहार दीनदारी की तहरीक और मिशन की शक्ल में हुआ जो एक इंक़ेलाबी लहर की तरह दिल और दिमाग़ को झिंझो‍ड़ते हुए आगे बढ़ती गई, और उस मंज़िल तक पहुंची कि बड़े बड़े बुतों के टूटने की आवाज़ें क़ौम ने अपने कानों से सुनी।
यह इंक़ेलाब कोई कम न था कि "बच्चे अमल में बाप से आगे निकल गए"।
बच्चे अमल में बाप से आगे निकल गए अब एक नारा नहीं बल्कि ऐसी हक़ीक़त है जिसे हर ज़िंदा ज़मीर अपने इलाक़े, मोहल्ले और गांव देहात से लेकर शहरों तक महसूस कर सकता है।
हाल ही में तंज़ीमुल मकातिब की तरफ़ से होनी वाली दीनी तालीमी कांफ्रेंस में जिस तरह एक बच्ची ने क़ुरआन ज़ुबानी याद कर के सुनाया उसे देख कर हर एहसास रखने वाले की आंख छलक उठी और सीना गर्व से चौड़ा हो गया कि ख़तीबे आज़म जाते जाते हमें उस दीनदारी की डगर पर मोड़ गए जहां केवल हज़रत ज़हरा स.अ. की कनीज़ होने के दावे नहीं किए जाते बल्कि उनकी सीरत पर अमल कर के ख़तीबे आज़म की डगर पर चलते हुए हमारे बच्चे उसी रविश और तरीक़े को चुन रहे हैं जो किसी ज़माने में जनाब फ़िज़्ज़ा का हुआ करता था, उनकी ज़िंदगी में क़ुरआन है उनकी बातों में क़ुरआन है, जो लोग कहते हैं कि दीनदारी की तहरीक और मिशन में अब क्या है जो कुछ था वह पहले था, न अब पहले जैसे लोग रहे और न पहले जैसा जज़्बा तो वह लोग भूल जाते हैं पैग़म्बर स.अ. के दौर जैसे लोग क्या अब हैं? या वैसा जज़्बा किसी में पाया जाता है जो इमाम अली अ.स. में था या जो अबूज़र और सलमान में था?
जज़्बों की परख का यूं तो हमारे पास कोई पैमाना नहीं लेकिन इतना यक़ीन से कहा जा सकता है कि आज भी अबूज़र और सलमान के क़दम की ख़ाक को अपनी आंखों का सुरमा बनाने वाली हस्तियां मौजूद हैं, कहीं आयतुल्लाह ख़ामेनई की शक्ल में तो कहीं आयतुल्लाह सीस्तानी की शक्ल में तो कहीं सैयद हसन नसरुल्लाह की शक्ल में, और कुछ गुमनाम सिपाहियों की सूरत में जो मासूम की मौजूदगी से लेकर ग़ैबत तक बातिल के सामने वैसे ही डटे हैं जैसे इनका नबी उनके आमाल को देख रहा हो।
पैग़म्बर स.अ. की 23 साल की सुधार करने वाली ज़िंदगी में अगर वह रंग पैदा हो सकता है चौदह सौ साल में उठने वाले हज़ारों तूफ़ान उसके रंग को फीका न कर सकें तो इस बात में भी कोई शक नहीं कि उन्हीं की मेहनत और सबक़ को लोगों तक पहुंचाने वाले ख़तीबे आज़म के ख़ुलूस का रंग भी इतना हल्का नहीं जो कुछ आंधियों के चलने या कुछ अरकान के गुज़र जाने से फीका पड़ जाए, यही वजह है कि दीनदारी की तहरीक और मिशन ने जिस तरह कल प्रतिगामी और साम्राज्यवाद, ख़ानदानी अना (अकड़) को अल्लामा ग़ुलाम असकरी र.ह. के मुताबिक़ "शाही" को ज़लील किया इसी तरह आज भी इस तहरीक में वह दम है कि आज के दौर के वैचारिक बुतों को तौहीद के वार से जड़ से उखाड़ सकती है लेकिन उसके लिए इब्राहीमी नज़र की ज़रूरत है जिसका अपने अंदर पैदा करना मुश्किल ज़रूर है लेकिन अगर ख़्वाहिशात पर कंट्रोल हो तो ना मुमकिन भी नहीं है।
इब्राहीमी नज़र बड़ी मुश्किल से पैदा होती है, "हवस छुप छुप कर सीनों में बना लेती हैं तस्वीरें"
अल्लाह! कैसी इब्राहीमी नज़र थी इस सदी की अज़ीम हस्ती की, जो न केवल समाज में अपने हाथों तराशे गए बुतों को तोड़ रहा था बल्कि ऐसे बुतों के तोड़ने वालों की तरबियत की फ़िक्र भी उसे थी जो हमेशा इब्राहीमी इरादों और हौसलों के साथ "तौहीद" को बचाने के लिए हर नमरुद के सामने कामयाबी के ज़ामिन बन जाएं।
यही वजह है कि आज भी साम्राज्यवाद को मदरसों से ख़तरा महसूस हो रहा है और मदरसों को लेकर उनकी साज़िश अब भी जारी है, मदरसों में तालीम हासिल करने वाले चाहे जिस जगह जिस रंग या जिस नस्ल के भी क्यों न हों आज इसीलिए साम्राज्यवादी ताक़तों के निशाने पर हैं क्योंकि उन्हें केवल तालीम नहीं दी जाती बल्कि दिल में छिपे अहंकारी बुतों के तोड़ने का हुनर भी सिखाया जाता है जो ख़ुद इसी तालीम का हिस्सा है।
इतिहास गवाह है कि जब भी कोई बुतों को तोड़ने वाला हिम्मत और हौसले के साथ सामने आया है, बुतों की पनाह में ख़ुद को मनवाने वालों ने उसे आग में फेंकने की कोशिश की है, यह और बात है कि अल्लाह की सुन्नत यह है कि अगर तुम उसकी राह में बुतों को तोड़ोगे तो हज़ारों टन जलती हुई लकड़ियों की आग को भी वह ठंडी कर देगा।
शायद यही वजह थी कि घिसी पिटी रस्मों के बुतों को तोड़ने के लिए जब यह इब्राहीम का बेटा आगे बढ़ा तो हर तरफ़ से नुक्ता चीनी का ऐसा बाज़ार गर्म हो गया जो दहकती आग से कम नहीं था लेकिन अल्लाह पर ईमान ने उसे गुलज़ार बना दिया और आरोप, आलोचना और नुक्ता चीनी के बाज़ार से ख़तीबे आज़म मुस्कुराते हुए गुज़र गए, और न केवल उनकी हिम्मत और हौसले में कमी नहीं आई बल्कि इरादे में मज़बूती आती चली गई और हर आगे बढ़ने वाला क़दम पहले से और मज़बूती के साथ बढ़ गया।
"शिकस्त खा न सका वक़्त के ख़ुदाओं से
वह आदमी बड़े अज़्म व  यक़ीन वाला था"
अपने फ़ौलादी इरादों के बल पर ही ख़तीबे आज़म ने आले मोहम्मद के उलूम को फैलाने का बेड़ा अपने सर उठाया, अल्लाह पर भरोसा किया और काम शुरू कर दिया जिसका काम था उसकी मदद की, नतीजा यह है कि आज पहले से ज़्यादा दीनी जागरूकता पाई जाती है, दोस्त तो दोस्त दुश्मन भी उनके काम के फ़ायदे का इंकार नहीं कर सके।
ख़तीबे आज़म की इससे बड़ी कामयाबी क्या होगी कि जो तहरीक और मिशन उन्होंने छेड़ा था आज हर बेदार ज़मीर उसका हिस्सा बना हुआ है।
दीनी तालीम की बुनियाद पर मुर्दा ज़मीर बेदार हो रहे हैं और आज न केवल मदरसों में रौनक़ है बल्कि उनकी तादाद रोज़ाना बढ़ रही है, मज़हबी लेटरेचर का इस्तेक़बाल भी पहले से ज़्यादा हो रहा है।
कल दीन और क़ौम की जो ख़िदमत ख़तीबे आज़म और उनके साथी अंजाम दे रहे थे आज हर सूझबूझ रखने वाला वही अंजाम दे रहा है।
क़ौम और मिल्लत की ख़िदमत आज हर दीन की सूझबूझ रखने वाले का ख़ास मिशन है, दीनदारी की तहरीक से पहले और बाद की हालत इस बात की दलील है कि यह तहरीक लोगों के दिलों में घर बना चुकी है, जिन मदरसों की तादाद इस तहरीक से पहले उंगलियों पर गिनी जा सकती थी आज माशा अल्लाह उनकी तादाद सैकड़ों में पहुंच चुकी है।
इसका मतलब न केवल यह तहरीक ज़िंदा है बल्कि तहरीक पूरी क़ौम को ज़िंदा रखे हुए हैं, आप कोई मिशन, कोई नेक काम, कोई समाजी और क़ौमी तहरीक या इदारा नहीं दिखा सकते जहां ख़तीबे आज़म की तहरीक से जुड़े लोग डाइरेक्ट या अनडाइरेक्ट तौर पर मौजूद न हों, यह तहरीक के ज़िंदा होने की दलील नहीं तो और क्या है?
अगर हालात के पेशे नज़र अलग अलग जगहों पर शमा रौशन हो जाएं और हर शमा अपना काम कर रही हो तब भी उस असली शमा और चिराग़ को भुलाया नहीं जा सकता है जिसकी रौशनी से शमा जल कर अपने चारों तरफ़ उजाला कर रही है।
ख़तीबे आज़म की याद को ताज़ा करना उनकी फ़िक्र पर नज़र डालना उन्हें पढ़ना केवल उनके लिए अक़ीदत का इज़हार नहीं है बल्कि हमारे लिए सोंचने का मक़ाम है कि हम उस मज़बूत इरादे और बुलंद हौसले वाले अज़ीम मर्द के विचारों की रौशनी में यह देखें कि हम कहां खड़े हैं? और हमें कहां होना चाहिए?
आज भी हम अपने मोहसिन और मोअल्लिम की तरफ़ देखेंगे तो सारी मुश्किलों के बाद यही आवाज़ आएगी कि छोड़ो मुश्किलों को, मुश्किलें तो होती ही इसलिए हैं कि तुम्हारे जौहर को निखारा जा सके।
आज भी अना, घमंड और तकब्बुर के नक़्क़ार ख़ानों की आवाज़ों को दबाते हुए लिल्लाहियत में डूबी हुई एक दर्द भरी आवाज़ सुनाई देगी जो हमें आगे बढ़ने का हौसला दे रही है।
उठ कि ख़ुर्शीद का समाने सफ़र ताज़ा करें
नफ़से सूख़्ता ए शामो सहर ताज़ा करें

सैयद नजीबुल हसन ज़ैदी