13 फ़रवरी 2011

करारी में जुलूसे अमारी: 2011

इलाहबाद दोआबा इलाके में, बल्कि अगर यह कहा जाए की पूरे उत्तर भारत में, या फिर पूरे हिन्दुस्तान में आठ रबीउल अव्वल को अमारी का जुलूस इस तरह नहीं बरामद होता जिस तरह करारी में होता है. जुलूस का नज़्म इतना आला है की दूर दराज़ से लोग इसकी ज़ियारत करने आते हैं.
शबीहे तबर्रुकात तो हर जगह मिल जाएंगी लेकिन शाम क़ैद खाना जैसी शबीह कहीं न मिलेगी. शबीह बरामद होते हुए तक़रीर हर जगह होगी लेकिन हामिद चचा के मुनफ़रिद अंदाज़ में कहीं सुनने न मिलेगा. मैदान में तक़रीर और नौहा पढने के लिए तख़्त मिल जाएंगे लेकिन यहाँ जैसा स्टेज  कहीं नज़र न आएगा.
इस जुलूस की कामयाबी का राज़ कारकुनान का  ख़ुलूस है. दिन रात मेहनत के बाद ही यह यादगार बनता है. Volunteer हजरात अपना बिल्ला फखरिया लगाए हुए अपने अपने कामों में  मसरूफ रहते हैं.
तश्हीर के लिए रंगीन और खुबसूरत हैंड बिल लोगों की तवज्जो अपनी तरफ खींचता हैं. जिस की वजह से अत्राफो अक्नाफ के साथ साथ बीरुनी मोमिनीन भी शिरकत करते हैं.
मौसम की शदीद ठंडक की वजह से जुलूस बरामद होने में ताखीर हो गई. पहली मजलिस के बाद जुमा की नमाज़ अदा की गई और फिर शबीहें बरामद हुईं. मेरठ से आए साहेबे बयाज़ ने बहुत अच्छा नौहा पढ़ कर माहौल को गरमा दिया. मीसम गोपालपुरी जो कई बरसों से मुसलसल शिरकत कर के नौहा पढ़ रहे थे इस साल किसी वजह से करारी नहीं पहुँच सके. खवातीन शबीहे ज़िन्दाने शाम की ज़ियारत मोकम्मल कर के अश्कबार आँखों से बाहर आतीं.
अब्बास रिज़वी के दिल्सोज़ नौहे ने अज़दारों को रुला दिया. ऐनुर रेज़ा (हुसैन) ने निजामत के फराएज़ अपने खुबसूरत अंदाज़ में अदा किए. इस तरह करारी वालों ने कर्बला से मदीना पहुंचे लुटे हुए काफले की याद मनाते हुए "कर्बला में सोनेवालो माहपारो  अलविदा " का नौहा पढ़कर पुर जोश मातम करते हुए अय्यामे अज़ा को अलविदा कहा.