आ नए साल बता कैसे मुबारक मैं कहूँ ??
लाश शब्बीर की मकतल में पड़ी है अब भी
मेरी आँखों में अभी शाम के कैदी हैं बसे
सहन में मेरे अभी शामे गरीबाँ की सियाही है बिछी
मेरा मलबूस तो देख अब भी सोगवार हूँ मैं ,
देख मातम में है सारा यह कबीला मेरा ..
आ नए साल बता तू ही बता दे मुझको ,
क्या कहूँ? कैसे मैं खुश रंग क़बा को ओढ़ूँ ?
ख़ाक ओढ़े अभी कोनें की शहजादी है ..
सरे मजलूम सिना पर है तिलावत करता ,
कोई बीमार जो माँ बहनों की चादर पे लहू रोता है ,
कैसे उसको मैं बताऊँ के तू फिर आया है ..
जो के ज़िन्दान में लम्हों को गिना करती है ??
वो यातीमान के जो ढलती हुई शामों में परिंदों का पता पूछती है ?
आ नए साल बता रंग भरूँ कोनसा मैं ?
वोह जो सुर्खी सरे अफ्लाक है खूने दिल की ?
या सियाही जो सरे शामे गरीबां फैली ?
या सफैदी जो किसी बीमार के बालों में उतर आई है ?
आ नए साल की रानाई चली जा के यहाँ
मातमी लोग हैं और ,
बिखरे है मिटटी पे गुलाब ..
बैन करती हुई पियासों पे ग़मज़दा आँखें ..
अपने पियारों को बनाए है सदका शेह का ,
माओं बहनों की सिसकती हुई ज़ख़्मी आँखें ..
तुझ से हो पाए तो बस काम यह इतना कर दे ..
खून का रंग फ़क़त अपनी क़बा से धो दे!!!
2 टिप्पणियां:
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